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________________ सूत्रसंवेदना-३ मिलता है, परन्तु वह सम्यग्ज्ञान नहीं होता और उनके द्वारा वास्तविक सुख का मार्ग भी नहीं मिलता । सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने एवं प्राप्त हुए ज्ञान की वृद्धि करने के लिए 'नाणम्मि सूत्र' में उसके आठ आचार बताए गये हैं । इन आचारों का पालन न करना या उनसे विपरीत आचरण करना ज्ञानविषयक अतिचार है । तदुपरांत पाटी, पुस्तक, पेन, पुस्तकासन वगैरह ज्ञान प्राप्ति के साधन होने से उनका जैसे तैसे उपयोग करना, गलत जगह छोड़ना तथा शक्ति होते हुए पढना नहीं, पढ़ा हुआ भूलना, अशुद्ध पढ़ना, बुद्धि होते हुए भी उन उन शब्दों के अर्थ का गंभीर चिंतन नहीं करना' पढ़ने के बाद उस ज्ञान का जीवन में उपयोग नहीं करना वगैरह भी ज्ञान विषयक अतिचार हैं । दर्शन : सर्वज्ञ परमात्मा ने जो पदार्थ जैसा कहा है, वो वैसा ही है ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखकर तत्त्व को तत्त्वरूप एवं अतत्त्व को अतत्त्वरूप जानकर स्वीकार करना सम्यग्दर्शन है । यह गुण प्राप्त होने पर वास्तविकता का ख्याल आता है एवं उससे उपरी तौर से सुखमय लगनेवाला संसार भी परिणाम से दुःखरूप होने से दुःखमय लगता है । जहाँ जीना सदा ही और आवश्यकता का नाम मात्र नहीं, वैसे मोक्ष का सुख ही सुखरूप लगता है । इस सुख में सहायक होनेवाले सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म ही स्वीकार करने योग्य लगते हैं एवं आत्मा का अहित करनेवाले कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म छोड़ने जैसे लगते हैं । सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में प्राप्त हुआ ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्दर्शन से युक्त चारित्र ही मोक्ष का कारण बनता है । इसीलिए मोक्षार्थी आत्मा को सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने, प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन को टिकाने एवं उसको ज्यादा निर्मल बनाने के लिए 'नाणम्मि सूत्र' में बताए हुए सम्यग्दर्शन के आठ आचारों का समुचित पालन करना चाहिए । इन आचारों का पालन न करना दर्शन विषयक आशातना है तथा वंदित्तु सूत्र की पाँचवीं गाथा में बताए हुए मिथ्यात्वी के स्थान में जाना-आना, खड़ा रहना वगैरह अतिचार तथा छठ्ठी
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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