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________________ 'इच्छामि ठामि' सूत्र २९ में जो खराब लगे, ऐसी चोरी, हिंसा, परस्त्रीगमन वगैरह प्रवृत्तियों अनाचाररूप कहलाती हैं; क्योंकि, ऐसी प्रवृत्तियाँ करते हुए श्रावक को देखकर लोग तुरंत कहते हैं “जैन होकर ऐसा करता है ? धर्म करनेवाले ऐसे होते हैं ?" इसलिए धर्मनिंदा के कारणरूप प्रवृत्ति श्रावक के लिए त्याज्य है । ऐसी प्रवृत्ति श्रावक के लिए अयोग्य कहलाती है । जो प्रवृत्ति श्रावक के लिए अयोग्य है, वह अनाचार होती है एवं इसलिए वह इच्छनीय भी नहीं होती। इसके अलावा, उत्सूत्र, उन्मार्ग, अकल्प्य, अकरणीय, दुर्ध्यान एवं दुष्ट चिंतन : ये सब अतिचार श्रावक के लिए करने योग्य नहीं हैं, इसलिए वे अनाचाररूप हैं । इसीलिए ही वे किंचित् भी इच्छा करने योग्य नहीं हैं, श्रावक के लिए जरा भी उचित नहीं हैं। जैन कुल में जन्मे हुए, जैन संस्कार से वासित हुए साधक में सामान्यतः अनाचार आदि दोषों की संभावना नहीं रहती तो भी अनादिकाल के कुसंस्कारों, प्रबल निमित्तों या प्रमादादि दोषों के कारण शायद कभी ऐसा हुआ हो, तो भी उन पापों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप करके, जुगुप्सा का अनुभव करते हुए, ये शब्द बोलकर गुरु समक्ष आर्द्र हृदय से उसकी आलोचना करनी चाहिए । इस तरीके से आलोचना करने से जीवन में पुनः उन पापों की संभावना मंद हो जाती है । इस प्रकार मन, वचन, काया से किए हुए अतिचारों की आलोचना करने के बाद ज्ञानादि के विषय में हुए अतिचारकी आलोचना करते हुए बताते हैं - नाणे दंसणे - ज्ञान के विषय में, दर्शन के विषय में (जो अतिचार लगे हों) ज्ञान : जो वस्तु जैसी है वैसी जानना सम्यग्ज्ञान है । ऐसे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति सर्वज्ञ कथित शास्त्र के आधार पर ही होती है । अन्य ग्रथों द्वारा ज्ञान 14. यत एवाश्रमणप्रायोग्य अत एवानाचारः, आचरणीय आचारः, न आचारः अनाचारः साधूनामनाचरणीयः, यत एव साधूनामनाचरणीय: अत एवानेल्लव्यः मनागपि मनसाऽपि न प्रार्थनीय - आवश्यक नियुक्ति इति ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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