________________
सूत्रसंवेदना-३ ___ यही इच्छाएँ जब बहुत प्रबल होती हैं, तब जीव विवेक चूक जाता है, उस समय उसमें अगर क्रूरता आ जाए तो उन इच्छाओं की तृप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि के विचार भी चालू हो जाते हैं एवं मन जब ऐसे विचारों में एकाग्र बन जाता है, तब वे विचार रौद्रध्यान स्वरूप बन जाते हैं ।
आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान दोनों दुष्ट ध्यान हैं, पर आर्त्तध्यान से रौद्रध्यान अधिक दुष्ट हैं क्योंकि रौद्रध्यान में अपने सुख के लिए सामने वाले व्यक्ति का दुःख, पीडा यहाँ तक की, उसके मृत्यु की भी दरकार नहीं रहती । सामनेवाला व्यक्ति दुःखी हो या उसकी मृत्यु हो तो भले हो, मेरी इच्छा के मुताबिक होना चाहिए ऐसी क्रूर घातकी सोच रौद्रध्यान रूप बन जाती है । आर्त्तध्यान तिर्यंचगति का कारण बनता है, तो रौद्रध्यान नरकगति का कारण बनता है । इस पद का उच्चारण करते हुए सोचना चाहिए कि,
“महापुण्य के उदय से, बहुत समय बाद मोक्षमार्ग में उपकारक मनोयोग प्राप्त हुआ है । उसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना करके मैं यहीं पर आत्मा का आनंद पा सकता हूँ। फिर भी मुझ जैसे मूर्ख ने इस महामूल्य मन से अपनी रुचि के
अनुरुप' किस तरह भौतिक सुख प्राप्त कर सकूँ एवं किस प्रकार उसे संभाल कर रख सकूँ आदि के विषय में ही आर्त
और रौद्रध्यान करके अपनी आत्मा को दुःखी किया है । यह मैंने गलत किया है । भगवंत ! दुष्ट ध्यान एवं दुष्ट चिंतन से हुए मेरे इन पापों की मैं आलोचना करता हूँ, निंदा करता हूँ
एवं पुनः ऐसे पाप न हों उसके लिए सावधान बनता हूँ ।” मन, वचन, काया से कौन से अतिचार हुए हैं उनका विचार करके उनके बारे में विशेष बताते हैं।
अणायारो अणिच्छिअव्वो असावग्गपाउग्गो - न आचरने योग्य, न इच्छा करने योग्य, श्रावक के लिए अयोग्य (अतिचार) ।
श्रावक के लिए जो आचरण योग्य न हो, उसे अनाचार कहते हैं । जिस कार्य को करने से जैन शासन की बदनामी हो, शासन की मलिनता हो, लोक दृष्टि