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________________ 'इच्छामि ठामि' सूत्र २७ भावना, अनुप्रेक्षा या चिंतन होता है, उसका समावेश दुष्ट चिंतन में किया गया है । इष्ट व्यक्ति या वस्तु को पाने की इच्छा, अनिष्ट व्यक्ति या वस्तु से दूर भागने की इच्छा, मेरे शरीर में रोग न हो, रोग हो गया हो, तो उसे शीघ्र नाश करने की इच्छा या धर्म के बदले में सांसारिक सुख पाने की इच्छा वगैरह चित्त की चंचलता उत्पन्न करनेवाली सभी इच्छाएँ, भावना, अनुप्रेक्षा या चिंतन स्वरूप हों तो वह दुष्ट चिंतन कहलाता है एवं उसमें मन स्थिर हो जाए तो उसे दुष्ट ध्यान कहते हैं । जिसके जीवन में धर्म परिणत न हुआ हो ऐसे जीवों को निरंतर ऐसी इच्छाएँ होती रहती हैं । उनके मन में सतत ऐसे विकल्प उठते रहते हैं कि, 'मुझे मेरी प्रिय व्यक्ति, वस्तु या वातावरण कब मिलेंगे या ऐसी बाधाजनक अनिष्ट व्यक्ति, वस्तु या वातावरण में कब बदलाव आयेगा या वे कब दूर होंगे। गरमी कितनी अधिक है । बारिस कब आएगी एवं ठंडक कब होगी। आम कब मिलेंगे। डॉक्टर कब आयेंगे । मैं कब स्वस्थ होऊँगा...' अनुकूलता का राग एवं प्रतिकूलता का द्वेषः इन दो कारणों से जीव का मन सतत इस प्रकार के विचारों से व्यग्र रहता है । ऐसे विचारों में एकाग्रता आने से ऐसे चिंतन में मन स्थिर होने पर वह दुष्ट चिंतन दुर्ध्यान अर्थात् आर्तध्यान बन जाता है। (iii) रोगचिंता - शरीर में रोग न होवे या हो गया हो तो सतत उसको दूर करने के लिए किया __ गया चिंतन या ध्यान । (iv) निदान - धर्म के बदले में सांसारिक सुख पाने की इच्छा का चिंतन या ध्यान । B. रौद्रध्यान - हिंसादि का क्रूरतावाला चिंतन या ध्यान उसके चार प्रकार हैं । (i) हिंसानुबंधी - अपने कार्य में विघ्न उत्पन्न करनेवाले अन्य को मारने, पीड़ा देने का चिंतन या ध्यान । (ii) मृषानुबंधी - अपना इष्ट साधने के लिए झूठ बोलना आदि के विचारों का ध्यान । (iii) स्तेयानुबंधी - चोरी संबंधी चिंतन या ध्यान । (iv) संरक्षणानुबंधी - संपत्ति आदि के संरक्षण की सतत चिंता या ध्यान । आर्त्त-रौद्र ध्यान विषयक विशेष जानकारी के लिए देखें सू.सं.भा. ४ आठवें व्रत की गाथा २५ वीं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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