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सूत्रसंवेदना-३ साधना में सब से अधिक महत्त्व मनोयोग का है । मनोयोग यदि शुभ विषय में प्रवृत्त हो, तो उसके द्वारा साधक उत्तरोत्तर गुणों का विकास करता हुआ मोक्ष के नजदीक तक पहुँच सकता है एवं यदि मनोयोग अशुभ विषय में प्रवृत्त हो तो उसके द्वारा साधक सातवीं नरक तक भी जा सकता है । इसलिए जैसे कायिक एवं वाचिक अतिचारों की आलोचना की वैसे मनोयोग द्वारा मानसिक अतिचारों की भी आलोचना करनी है ।
अलग अलग तरीके से उपयोग किए हुए इस मनोयोग के शास्त्रकारों ने मुख्य दो विभाग किए गये हैं - १. ध्यान एवं २. चित्त । उसमें स्थिर अध्यवसाय को ध्यान कहते हैं एवं चल अध्यवसाय को चित्त कहते हैं । चित्त याने कि चल अध्यवसाय भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंतन स्वरूप होता है।
किसी एक ही विषय में मन की एकाग्रता या मन का स्थिरीकरण ध्यान है । एक ही विषय को बार बार सोचकर उससे मन एवं आत्मा को भावित करने का प्रयत्न करना भावना है। किसी भी पदार्थ के विषय में खूब गंभीरता से विचार करना, खूब बारीकी से देखने का यत्न करना अनुप्रेक्षा है, एवं किसी भी विषय पर विविध प्रकार से विचार करना चिंतन है ।
शुभ स्थान में प्रवृत्त ध्यान या भावना आदि का समावेश शुभ ध्यान एवं शुभ चिंतन में किया गया है एवं अशुभ स्थान में प्रवृत्त ध्यान या भावना आदि का समावेश दुर्ध्यान एवं दुष्ट चिंतन में किया गया है ।
शास्त्र में दुर्ध्यान के दो प्रकार बताए गये हैं - १. आर्तध्यान एवं २. रौद्रध्यान इन दोनों प्रकार के दुर्थ्यानों के पहले या बाद में उसी विषय में जो 12.दुल्लध्यानं - दुर्थ्यानं - आर्तरौद्रक्षणं एकाग्रचित्ततया । दुल्लविचिन्तितो दुर्विचिन्तित: अशुभ एव चचित्ततया ।
- हारिभद्रीय आवश्यक नियुक्ति जं थिरमज्झवसाणं तं, झाणं, जं चं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा, अणुप्पेहा वा अहव चिंता ।।२।।
- ध्यान शतक 13A. आर्तध्यान - दुःख या पीडा के कारण होनेवाला ध्यान; उसके चार प्रकार हैं -
(i) इष्ट संयोग - इष्ट वस्तु को प्राप्त करने के लिए निरंतर क्रियाशील एकाग्र चिंतन या ___ ध्यान । ' (ii) अनिष्ट वियोग - अनिष्ट वस्तु से दूर होने के लिए किया जानेवाला चिंतन या ध्यान ।