________________
'इच्छामि ठामि' सूत्र - २५ भगवान ने जैसा कहा है, वैसा न करना सूत्र के विरुद्ध है, उसके कारण ही जीव ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग से दूर चला जाता है, जो उन्मार्ग स्वरूप है । उन्मार्ग के कारण ही जीव को अपनी भूमिका में त्याज्य ऐसे आहारादि ग्रहण करने का मन होता है । अकल्प्य ग्रहण करने से ही अकरणीय प्रवृत्ति होती है। इस तरह उत्सूत्र से उन्मार्ग एवं उन्मार्ग से अकल्प्य का ग्रहण एवं उसके बाद अकरणीय प्रवृत्ति होती है ।
जिज्ञासा : उत्सूत्र प्रवृत्ति ही उन्मार्ग बनती है एवं उन्मार्ग ही अकल्प्य एवं अकरणीय बनता है, तो यहाँ मात्र 'उस्सुतो' इस एक ही शब्द का प्रयोग न करते हुए चारों शब्दों का अलग-अलग प्रयोग क्यों किया गया ?
तृप्ति : उत्सूत्र आदि चार पदों के बीच कार्य-कारण भाव सम्बन्ध होते हुए भी चारों शब्दों का अलग प्रयोग करने का कारण यह है कि, भले उत्सूत्र ही उन्मार्गादि स्वरूप बनता हो, फिर भी इन चारों के बीच अपेक्षा कृत भेद होता है। जैसे कि सूत्र के विरुद्ध बोलना उत्सूत्र है, औदयिक भाव में आकर प्रवृत्ति करना या मार्ग के विरुद्ध प्रवृत्ति करना उन्मार्ग है, साधु या श्रावक को जो कल्प्य नहीं वैसी चीजें लेना या उनका उपयोग करना अकल्प्य है, एवं साधु या श्रावक को जो करने योग्य नहीं वैसी प्रवृत्ति करना अकरणीय है, इस तरह चारों के बीच भेद भी है । इस भेद को बताने के लिए ये चारों पद अलग किए गये होंगे ऐसा लगता है अथवा उत्सूत्र ही उन्मार्गादि रूप बनता है, वैसा बताकर उत्सूत्र प्रवृत्ति कितनी भयंकर है, इसका ज्ञान कराने के लिए इन चार अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया गया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । तो भी विशेषज्ञ इस विषय के प्रति विचार करें ।
एक" अपेक्षा से 'उस्सुतो' 'उम्मग्गो' इन पदों द्वारा मुख्यतया वाचिक एवं 'अकप्पो' 'अकरणिज्जो' इन पदों द्वारा कायिक अतिचार बताए गये हैं ।
अब ‘दुज्झाओ' आदि दो पदों से मानसिक अतिचारों को बताते हुए कहते हैं
दुज्झाओ दुविचिंतिओ - दुष्ट ध्यान एवं दुष्ट चिंतन से जो अतिचार लगा हो । 11. उक्तस्तावत्कायिको वाचिकश्च अधुना मानसमाह ।
- आवश्यक नियुक्ति