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सूत्रसंवेदना-३ कल्प्य-अकल्प्य का विभाग ग्रहण करनेवाली वस्तु के विषय में होता है एवं कर्तव्य-अकर्तव्यों का विभाग आचरण के विषय में होता है । सामान्यतया सोचने से ऐसा लगता है; परन्तु आवश्यकनियुक्ति वगैरह में उसकी व्याख्या इस प्रकार की है : शास्त्र में जिसका निषेध किया गया है, वह अकल्प्य है एवं अकल्प्य करना अकरणीय है, कल्प अर्थात् विधि, आचार या चरण-करणरूप व्यापार । उसके योग्य जो है वह कल्प्य एवं उसके जो योग्य न हो, वह अकल्प्य कहलाता है अर्थात् जो विधि से, आचार से या चारित्र एवं क्रिया के अनुरूप नियमों से विरुद्ध होता है, वह अकल्प्य है, वैसा करना अकरणीय है ।
शास्त्र में श्रावक को जिन पदार्थों को खाने, पीने, देखने, सुनने या उपभोग करने का निषेध किया गया हो वे सब श्रावक के लिए अकल्प्य हैं। जैसे साधु भगवंतों के लिए आधाकर्मी आहार अकल्प्य है, वैसे श्रावक के लिए कंदमूल, अनंतकाय आदि अभक्ष्य का भक्षण अकल्प्य है । अकल्प्य कार्य साधक के लिए अकरणीय हैं । ऐसा होते हुए भी कषायादि के अधीन होकर ऐसा कोई भी कार्य किया हो तो यह शब्द बोलते हुए उन कार्यों को स्मृति में लाकर उनका पुनरावर्तन न हो वैसा संकल्प करके गुरु भगवंत के समक्ष जो अकल्प्य ग्रहण हुआ हो या जो अकरणीय कार्य हुआ हो, उन दोनों का आलोचन करना होता है ।
'उस्सुत्तो' आदि पदों में भेद:
प.पू. हरिभद्रसूरिश्वरजी महाराज ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में बताया है कि 'उस्सुतो, उम्मग्गो, अकप्पो एवं अकरणिज्जो' इन चार पदों के बीच क्रमिक कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है । सूत्र के विरुद्ध बोलने से या करने से उन्मार्ग का आचरण होता है । इस उन्मार्ग के आचरण से ही अकल्प्य ग्रहण होता है एवं अकल्प्य ग्रहण करने से ही अकरणीय आचरण होता है। 9. चरण-करणरूप व्यापार की विशेष समझ सूत्र संवेदना-४ वंदित्तु सूत्र की गाथा नं. ३२ में
मिलेगी। 10. हेतुहेतुमद्भावश्चात्र, यत एवोत्सूत्रः अत एवोन्मार्ग इत्यादि - आवश्यक नियुक्ति