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'इच्छामि ठामि' सूत्र
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बुरे भावों में या सबल-निर्बल निमित्तों में राग-द्वेष करना या क्रोधादि कषाय के अधीन होना उन्मार्ग है । इस उन्मार्ग से बचने के लिए साधक को सोचना चाहिए कि - “कर्म के उदय से प्राप्त हुए भाव आगंतुक (बाह्य या पराए ) हैं । कर्म पूर्ण होने पर ये भाव चले जाते हैं। कर्म के उदय से जो निमित्त मिले हैं, वे मेरे ही पूर्वकृत कर्मों के फल हैं, मेरी ही भूल का यह परिणाम हैं । मेरी ही भूल से उत्पन्न इस परिस्थिति में घृणा या आकुलता में करते हुए क्षमा रखना मेरा कर्तव्य है । मेरे लिए राग, द्वेष के अधीन न होते हुए मध्यस्थ रहना उचित है ।" इस प्रकार विचार कर अच्छे या बुरे निमित्तों के प्रति उदासीन रहने का भाव रखने का जो प्रयत्न है, वह मार्ग है । संक्षेप में कर्म के उदय को निष्फल करने का जो प्रयत्न है, वह क्षायोपशमिक भावरूप मार्ग है एवं कर्म के उदय के अधीन होना उन्मार्ग है ।
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यह शब्द बोलते हुए दिन भर में कैसे कैसे निमित्त में किस किस प्रकार के कषाय किए, कर्म से प्राप्त हुई परिस्थिति में कहाँ मोह होने से व्यथित हुए, कहाँ आसक्ति की, इन सब विषयों को याद करके, पुनः ऐसा न करने का संकल्प करके दुःखार्द्र हृदय से गुरु भगवंत के समक्ष उसकी आलोचना करते सोचना चाहिए कि,
“ अहो ! उत्सूत्र प्ररूपणा और उन्मार्ग गमन दोनों क्रियाएँ मेरी आत्मा के लिए अति खतरनाक हैं । ऐसा जानते हुए भी प्रमादादि के वश होकर मुझ से महादुष्कृत्य हो गया है । हे कृपालु ! मेरे ये अक्षम्य दुष्कृत्यों की भी आप दयालु के पास मैं क्षमा चाहता हूँ ।"
अकप्पो अकरणिज्जो - आचार से विरुद्ध ( एवं ) न करने योग्य (ऐसा जो आचरण किया हो ।)
साधक जीवन में आहार, पानी, वस्त्र वगैरह जो जो वर्जित बताए गए हैं, वे अकल्प्य हैं एवं आचार की दृष्टि से जो करने जैसा न हो वह अकरणीय है,