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'इच्छामि ठामि' सूत्र . २१ इस प्रकार मोह-ममत्व या कषाय के अधीन होकर अनेक प्रकार से उत्सूत्र भाषण होने की संभावना है । बहुत बार ऐसा भी कहा जाता है कि, क्या घर में रहकर धर्म नहीं होता ? आज साधु बनने में क्या है ? एसी बातें भी उत्सूत्ररूप बनती हैं, एवं इस प्रकार का उत्सूत्र अनंत संसार का कारण भी बन सकता है । इसीलिए आनंदघनजी महाराज ने अनंतनाथ भगवान की स्तवना में कहा है कि, 'पाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो' उत्सूत्र भाषण जितना इस दुनिया में दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ कथित शास्त्रों के एक एक वचन में अनंत जीवों को तारने की शक्ति है । उनके प्रत्येक पद में अनंत जीवों का हित-श्रेय समाया है । ऐसे शास्त्र के वचन का अपलाप करना, खुद को न जंचे ऐसे शास्त्र वचनों की उपेक्षा करना, ‘आगम सर्वज्ञ कथित नहीं है' ऐसा कहकर शास्त्र के प्रति अश्रद्धा करना वगैरह उत्सूत्र प्ररूपणारूप है ।
प्ररूपणा के विषय में जैसे सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा करना उत्सूत्र कहलाता है, वैसे ही क्रिया के विषय में भी सूत्रानुसार क्रिया न की हो तो अपेक्षा से उसे भी उत्सूत्र क्रिया कह सकते हैं । ऐसी उत्सूत्र क्रिया आत्महित में अवश्य बाधक बन सकती है ।
धर्मानुष्ठान रूप कोई भी क्रिया शास्त्र में जिस विधि से, जो लक्ष्य रखकर और जयणापूर्वक करने को कहा हो, उसे उस विधिपूर्वक की जाए तो ही वह क्रिया शास्त्रानुसारी क्रिया कहलाती है एवं विशेष कारण से औत्सर्गिक क्रिया का आदर एवं बहुमान रखकर, अपवाद मार्ग से गीतार्थ गुरु भगवंत की आज्ञा के मुताबिक किया हो, तो वह भी शास्त्रानुसारी है; परन्तु स्वेच्छा से किसी विशेष कारण के बिना किसी भी समय पर मनचाहे तरीके से क्रिया की जाए, तो वह क्रिया शास्त्रानुसारी नहीं कहलाती ।
ऐसा उत्सूत्र कथन या क्रिया अनंत संसार का कारण भी बन सकते हैं। इसीलिए, इस सूत्र द्वारा अनुपयोग से या अनाभोग से अपने जीवन में उत्सूत्र भाषण कभी हो गया हो, तो उसके प्रति अन्तःकरण से घृणा व्यक्त कर, जुगुप्सा के परिणामपूर्वक गुरु भगवंत समक्ष प्रतिक्रमण के पूर्व एवं प्रतिक्रमण के दौरान आलोचना एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए ।