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सूत्रसंवेदना-३
भी त्याज्य माना है । अनायास ही यदि स्त्री का स्पर्श हो जाए तो भी दोष लगता है, उसका प्रायश्चित्त करना पड़ता है । इसलिए अनायास से भी हुआ स्त्री का स्पर्श योग्य नहीं है, ऐसा कहना चाहिए । उसके बदले अपने बचाव के कारण बोले हुए ये वचन उत्सूत्र थे एवं इस एक वचन के कारण उन्होंने अत्यंत परिमित किए हुए अपने संसार को दीर्घकालीन बना दिया था ।
भरत महाराज के पुत्र मरीचि ने संयम जीवन अपनाया था । संयम जीवन के कष्टों को सहन करने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है, ऐसा जानकर उन्होंने संयम वेष छोड़ त्रिदंडी का वेष स्वीकार किया था । फिर भी उन्हें संयम के प्रति अनहद राग था। इसी कारण से वे उनके पास आनेवाले जिज्ञासु व्यक्तियों को संयमजीवन की सुंदरता समझाकर एवं संसार से विरक्त करके ऋषभदेव प्रभु के पास दीक्षा लेने भेजते थे ।
एक बार वे बीमार पड़े तब उनकी सेवा करने के लिए उनके पास कोई नहीं था । संयोगवश ऐसे समय कपिल नाम का एक राजकुमार उनकी देशना सुनने आया । देशना सुनकर उसे संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ एवं वह संयम जीवन स्वीकारने के लिए तत्पर बना । हमेशा की तरह मरीचि ने उसे प्रभु के पास दीक्षा लेने को कहा, परन्तु कपिल को तो मरीचि के पास ही दीक्षा लेनी थी । इसलिए उसने मरीचि से मार्मिक प्रश्न पूछा, “भगवंत धर्म कहाँ ?" बीमारी के कारण परिचारक की इच्छा से मरीचि यहाँ चूक गए और जवाब दिया कि 'कपिला, इत्थंपि, इहयंपि ।' -"मैं जिस संयम जीवन का वर्णन करता हूँ उसका ही पालन ऋषभदेव प्रभु के श्रमण भगवंत करते हैं, वह संयम जीवन भी धर्म है एवं यहाँ मैं जो पालता हूँ वह भी धर्म ही है ।"
सामान्य से यह बात सच है, क्योंकि धर्म तो दोनों जगह है, परन्तु कपिल का प्रश्न था, आत्म हितकर श्रेष्ठ धर्म कहाँ है ? उसके संदर्भ में श्रमण धर्म ही श्रेष्ठ है' ऐसा कहो के बदले 'वहाँ भी धर्म है एवं यहाँ भी धर्म है' ऐसा कहना वह संदर्भ से शास्त्रानुसार नहीं होने के कारण उत्सूत्ररूप ही था । परिणामतः मरीचि का असंख्यात भव संसार बढ़ गया ।