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'इच्छामि ठामि' सूत्र
१९ से जाना जा सकता है । इसके विपरीत पूर्वापर सन्दर्भ का विचार किए बिना, जिस दृष्टि से सूत्र का कथन किया गया हो, उससे भिन्न दृष्टि से उसका अर्थ किया जाए तो उत्सूत्र प्ररूपणा का दोष लगता है, जैसे कि, 'अहिंसा ही परम धर्म है' ऐसा कहना एक दृष्टि से सत्य होते हुए भी, एकांत से ऐसा कहने में उत्सूत्र भाषण का दोष लगता है; क्योंकि जैन दर्शन मात्र अहिंसा को ही धर्म मानता है, ऐसा नहीं है, परन्तु सत्य आदि को भी धर्म मानता है, वैसे ही मात्र सत्य वगैरह में ही धर्म है, ऐसा भी नहीं मानता, परन्तु आज्ञा सापेक्ष अहिंसादि में धर्म मानता है, इसलिए शास्त्र में आणाए धम्मो' 'धम्मो आणाए पडिबद्धो' ऐसा विधान किया गया है । इसी कारण जिनवचनानुसार लाभालाभ का विचार करके पृथ्वी, पानी आदि जीवों की हिंसा का जिन्होंने सर्वथा त्याग किया है ऐसे श्रमणों को भी रागादि की वृद्धिरूप भाव हिंसा से बचने के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करते समय नदी पार करना आदि भी छूट दी है एवं आरंभ-समारंभ युक्त श्रावकों को आरंभसमारंभ के मूल कारणरूप संसार के राग को तुडवाने और वीतराग परमात्मा तथा उनके संयमादि गुणों के प्रति राग उत्पन्न करने के लिए प्रभु की पुष्प, जल आदि से पूजा करने का विधान किया है । इसलिए हिंसा-अहिंसा के प्रकारों को जाने बिना, किस संदर्भ से उनकी हेयता एवं उपादेयता है यह समझे बिना, एकांत से हिंसा पाप ही है एवं अहिंसा ही परम धर्म है ऐसा कहना, उत्सूत्र प्ररूपणा है ।
संदर्भ के विचार बिना कथन करना भी कभी उत्सूत्र बन सकता है । जैसे कि, सावधाचार्य के जीवन में एक प्रसंग बना । अनायास एक स्त्री ने उनके चरण स्पर्श किए । सावधाचार्य उसको अधर्म मानते थे, परन्तु जब उनके प्रति ईर्ष्या एवं द्वेष रखनेवाले अनेक व्यक्तियों ने पूछा कि, 'भगवंत ! साधु को स्त्री का स्पर्श कल्पता है ?' तब शास्त्र के परमार्थ को समझते हुए भी खुब विचारणा करने के बाद मान-कषाय के अधीन बने सावद्याचार्य बोले, “जैन धर्म में कहीं भी एकांत नहीं, सर्वत्र अनेकांत है" उनके ऐसे वचन सामान्य से सत्य होते हुए भी. इस प्रसंग पर तो असत्य स्वरूप ही थे, क्योंकि साधु को स्त्री का स्पर्श मात्र 6. सावधाचार्य के दृष्टांत एवं उसकी विशेष जानकारी के लिए देखिए प्रतिमाशतक गा. नं. ४६ ।