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________________ सूत्रसंवेदना-३ मर्यादा से अर्थात् जो पाप जिस क्रम से किए हों एवं जिस भाव से किए हों, उन पापों को उसी क्रम एवं भाव से याद करके गुरु भगवंत के समक्ष विधिपूर्वक पूर्णतया अर्थात् सभी पापों को क्रम से या उत्क्रम से गुरु भगवंत के पास कहना, वह आलोचना है । दश प्रकार के प्रायश्चित्तों में यह पहले प्रकार का प्रायश्चित्त है । आलोचना करते समय साधक को सोचना चाहिए कि, “मेरे द्वारा ऐसे पाप क्यों हुए ? मैं किस कषाय के अधीन बना ? मैं कहाँ प्रमाद के वश हुआ कि, जिसके कारण मुझसे इन पापों का आसेवन हुआ ? यदि अपनी आत्मा से इन दोषों को दूर नहीं करूँगा, तो पुनः पुनः ये पाप मुझे लगते ही रहेंगे । इसलिए आलोचना करने के पूर्व, उन उन दोषों से अपनी आत्मा को बचाना बहुत जरूरी है । इसके अतिरिक्त, अब तक मैंने जो अतिचारों का सेवन किया है, उनकी सजा मुझे ही भुगतनी पडेगी। इन पापों के कारण ही मेरी जन्म-मरण की परंपरा बढनेवाली है एवं मोक्ष के महासुख से मैं वंचित रहनेवाला हूँ । अगर अब मुझे जन्म-मरण के फेरे से मुक्त होना है, दुःख का भाजन नहीं बनना है एवं शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करना है, तो तीव्र पश्चात्तापपूर्वक इन पापों को गुरु भगवंत समक्ष इस तरीके से प्रकट करूँ, जिससे किए हुए पाप कर्मों का सर्वथा विनाश हो एवं भविष्य में ये पाप, उस भाव से नहीं ही हों ।" ऐसी विचारणा किए बिना, मात्र शब्द बोलने से, किए हुए पापों का प्रायश्चित्त नहीं हो सकता; परन्तु राग-द्वेष आदि जिन अशुभ भावों से पाप किए हों, उनके विरुद्ध भावों से हृदय को-भावित कर अपने द्वारा किए हुए पापों की आलोचना करने के लिए गुरु भगवंत से अनुज्ञा मांगनी चाहिए। [आलोएह] - तुम आलोचना करो। इस शब्द को बोलकर गुरु शिष्य को आलोचना करने की अनुज्ञा देते हैं, जिसको सुनकरी विनयसंपन्न शिष्य गुरु की आज्ञा का स्वीकार करते हुए कहता है - 3. दश प्रकार के प्रायश्चित्त की विशेष जानकारी के लिए सूत्र संवेदना भा. १ में सूत्र नं. ७ देखिए तदुपरांत इस संबंधी विशेष बातें नाणम्मि सूत्र गाथा नं. ७ में भी है ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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