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'इच्छामि ठामि' सूत्र
जं खंडिअं, जं विराहि, यत् खण्डितं, यद् विराधितम्, जिस (प्रकार से) खंडित हुए हों, जिस (प्रकार से) विराधित हुए हों । तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । तस्य मिथ्या मे दुष्कृतम् ।
उसका मेरा दुष्कृत मिथ्या हों ! विशेषार्थ:
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसि आलोउं ? - हे भगवंत ! इच्छा सहित आप मुझे आज्ञा दें, मैं दिन भर में हुए अतिचारों की आलोचना करूँ ?
दैवसिक प्रतिक्रमण में द्वादशावर्त वंदन से (वांदना से) गुरु भगवंत को वंदन करने के बाद, गुरु के अवग्रह में रहकर ही दिवस संबंधी अतिचार - पापों की आलोचना करने के लिए नत मस्तक खड़ा रहकर शिष्य विनयपूर्वक गुरु भगवंत को संबोधन करके पूछता है : 'भगवंत ! मुझसे दिवस संबंधी जो जो अतिचार हुए हैं, उनकी आप के समक्ष आलोचना करूँ ?'
'आलोचना' शब्द 'आ' उपसर्ग पूर्वक लुच् धातु से बना है । उसमें 'आ' अर्थात् मर्यादा से अथवा समस्तरूप से एवं 'लोचना' अर्थात् प्रकाशना, इस तरह गुरु भगवंत के समक्ष मर्यादापूर्वक समस्त पाप प्रकाशित करना आलोचना है । 2. यहां दैवसिक तथा उपलक्षण से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक या सांवत्सरिक अतिचार भी उस
उस समय के लिए समझ लें । उसमें दिवस वगैरह की आलोचना में व्यवहार में प्रचलित काल मर्यादा इस प्रकार है : दिवस के मध्य भाग से आरंभ करते हुए रात्रि के मध्य भाग तक दैवसिक एवं रात्रि के मध्य भाग से आरंभ करके दिवस के मध्य भाग तक रात्रिक अतिचारों की आलोचना हो सकती है अर्थात् दैवसिक या रात्रिक प्रतिक्रमण इस प्रकार हो सकता है । उत्सर्ग से तो सूर्योदय से पूर्व राइअ प्रतिक्रमण हो जाना चाहिए एवं दैवसिक प्रतिक्रमण का वंदित्तु' सूत्र सूर्यास्त के समय पर आना चाहिए एवं पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक आलोचना प्रतिक्रमण तो वह पक्ष, चातुर्मास या वर्ष पूर्ण हो तब हो सकता है । जहाँ जहाँ 'देवसिअ' शब्द आए वहाँ उस प्रकार से बदलाव समझ लेना चाहिए ।