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'इच्छामि ठामि' सूत्र वंदन कर, अनुज्ञा मांगकर, दुबारा ‘देवसिअं आलोउं' इन पदों सहित इस सूत्र द्वारा चिंतन करके याद रखे हुए उन अतिचारों को गुरु भगवंह के समक्ष प्रकट करता है । शास्त्रीय भाषा में इसे आलोचना प्रायश्चित्त कहा जाता है, उसके बाद श्रावक जब 'वंदित्तु' सूत्र एवं श्रमण भगवंत ‘पगाम सज्झाय' बोलकर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करते हैं, तब उसके पूर्व तीसरी बार यह सूत्र बोला जाता हैं, उस समय दोषों से वापस लौटने के लिए 'इच्छामि पडिकमिउं' पद सहित यह सूत्र बोलकर सामान्य तौर से पाप का प्रतिक्रमण करते हैं एवं उसके बाद विशेष तौर से पापों का प्रतिक्रमण करने के लिए वंदित्तु' सूत्र बोलते हैं । इसके अतिरिक्त प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग आवश्यक करने के पूर्व चौथी बार यह सूत्र बोला जाता है । उस समय पुनः ‘इच्छामि ठामि काउस्सग्गं' पदों सहित बोला जाता है, जिससे फिर एक बार अतिचारों की शुद्धि करके आत्मा को और ज्यादा निर्मल करने का प्रयत्न किया जाता है । इस तरह यह एक ही सूत्र तीन प्रकार के पदों को बदलते हुए प्रतिक्रमण की क्रिया में चार चार बार उपयोग में लिया जाता है ।
अत्यंत दुःखी हृदय से, विभिन्न दोषों के प्रति तीव्र तिरस्कारपूर्वक पुनः ऐसे अतिचार-दोषों का सेवन न करने के संकल्प के साथ इस सूत्र के एक एक शब्द को इस तरीके से बोलना चाहिए कि, दोषों के कारण हुई व्रत की स्खलना दूर हो, बंधे हुए पाप कर्मों का नाश हो एवं प्रमादादि दोषों के संस्कार निर्बल हों । __ अतिचार की आलोचना करने के लिए इस सूत्र में सर्व प्रथम यह बताया गया है कि, किससे पाप हुआ? और किन किन प्रकार से पाप हुआ है ? उसके बाद जिन गुणों के पोषण के लिए व्रत नियम का स्वीकार किया गया है, उन ज्ञानादि गुण विषयक अतिचारों का आलोचन किया गया है और अंत में श्रावक के स्वीकारे हुए बारह व्रतों में जो खंडना-विराधना हुई हो, उनका 'मिच्छा मि दुक्कडं' दिया गया है । 1. एतञ्चातिचारसूत्रं सामायिकसूत्रानन्तरमतिचारस्मरणार्थम् उच्चारितं, पुनर्वन्दनकानन्तरं गुरोः स्वातिचारज्ञापनार्थमधीतम्, इह तु प्रतिक्रमणाय, पुरतस्तु पुनरतिचाराशुद्धेविमलीकरणार्थमुञ्चारयिष्यते ।
- धर्मसंग्रह की टीका