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सूत्रसंवेदना - ३
शिष्य की प्रतिक्रमण करने की इच्छा एवं योग्यता जानकर, प्रतिक्रमण के योग्य अवसर हो तो अनुज्ञा देते हुए गुरु भगवंत कहते हैं,
['ठाएह '] - तुम अपनी आत्मा को प्रतिक्रमण में स्थिर करो ।
यह शब्द सुनकर अपने इस कार्य में गुरु भगवंत की सम्मति है, ऐसा मानकर आनंदपूर्वक विनयी शिष्य या श्रावक, गुरु आज्ञा का स्वीकार करते हुए कहता है,
'इच्छं' - भगवंत, आप की आज्ञा मुझे स्वीकार है ।
'इच्छं' शब्द हर एक को अवश्य बोलना चाहिए ।
अब पाप से वापिस लौटने की इच्छा रखनेवाला शिष्य प्रतिक्रमण करते हुए कहता है,
सव्वस्स वि देवसिअ दुछिंति दुब्भासिअ दुझिट्ठिअ मिच्छा मि दुक्कडं । दिवस दौरान दुष्ट चिंतन से, दुष्ट वाणी से एवं दुष्ट चेष्टा से जिन अतिचारों का सेवन हुआ हो, उन संबंधी मेरा पाप मिथ्या हो ।
दुिित आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान का कारण बने वैसी स्वीकृत व्रतों को मलिन करनेवाली एवं आत्मा का अहित करनेवाली मन की विचारणा को ( चिंतन को ) दुष्ट चिंतन कहते हैं
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दुब्भासिअ - क्रोधादि कषायों के अधीन होकर, पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत होकर, संज्ञा आदि के परवश बन व्रत-मर्यादा को तोड़े, अपनी भूमिका भुलाए, कुल-मर्यादा का ख्याल रखे बिना वचनों का प्रयोग करना दुष्ट भाषण है अथवा स्व-पर के लिए अहितकारी, कर्कश, अप्रिय या हिंसक वचन भी दुष्ट भाषण कहलाता है ।
दुचिट्ठिअ हिंसादि के कारणभूत अजयणा से चलना, दौड़ना, कूदना, घुमना फिरना वगैरहै अनेक प्रकार की अहितकारी कायिक चेष्टाओं को दुष्ट चेष्टा कहते हैं ।
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