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________________ पडिक्कमण ठावण सूत्र इच्छं । इच्छामि। (यह शब्द अनुज्ञा के स्वीकार में बोला गया हैं । इसका अर्थ है आपकी अनुज्ञा से) मैं यह कार्य करना चाहता हूँ । देवसिअ दुझिंतिय दुब्भासिय दुश्चिट्ठिअ सव्वस्स वि मिच्छा मि दुक्कडं । दैवसिकस्य दुश्चिन्तितस्य दुर्भाषितस्य दुश्चेष्टितस्य सर्वस्य अपि मिथ्या मे दुष्कृतम् । ___ दिवस दौरान मन से जो दुष्ट चिंतन हुआ हों, वाणी से जो दुष्ट भाषण हुआ हों, एवं काया से जो दुष्ट चेष्टा हुई हों, वे सभी मेरे पाप मिथ्या हों । विशेषार्थ : इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं ? 'हे भगवंत ! आप मुझे दैवसिक प्रतिक्रमण में स्थिर रहने की स्वेच्छा से आज्ञा दीजिए।' _ 'हे भगवंत !' यह शब्द उपकारी गुणवान गुरु भगवंत के संबोधन में प्रयुक्त किया गया है । दृष्टिपथ में रहे या स्मृति में रहे गुरु भगवंत को ध्यान में रखकर साधक कहता है : 'हे भगवंत ! दिवस के दौरान मन, वचन, काया द्वारा मुझ से कई पाप हुए हैं, यह ठीक नहीं हुआ, क्योंकि उनके कटु परिणाम मुझे ही सहन करने पड़ेंगे । मुझे अपनी आत्मा को इन पापों एवं उनके संस्कारों से वापिस लाकर निष्पाप भाव में स्थापित करना है । हे भगवंत ! प्रतिक्रमण की इस क्रिया की योग्यता मुझ में दिखती हो, तो आप मुझे स्वेच्छा से प्रतिक्रमण करने की आज्ञा दीजिए, लेकिन मेरा आग्रह है इसलिए विवशता से नहीं ।' प्रतिक्रमण जैसे शुभ कार्य करने से पहले गुणवान गुरु भगवंतों को उस कार्य संबंधी इच्छा प्रदर्शित करनी चाहिए एवं तत् संबंधी गुर्वाज्ञा प्राप्त करने के बाद ही उन कार्यों का प्रारंभ करना चाहिए, यह जैन शासन की विशिष्ट प्रकार की मर्यादा एवं विनय है। इस मर्यादा के पालन से अहंकारादि दोष नाश होते हैं एवं नम्रतादि गुण प्रकट होते हैं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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