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________________ सूत्रसंवेदना-३ अनादि कुसंस्कारों के कारण जीव को पाप करने का भाव होना सहज है, परन्तु पाप से वापस लौटकर स्वभाव में (स्वस्थान में) स्थिर होने का प्रयत्न करना साधक के लिए भी आसान नहीं है। इस प्रयत्न को सरल और सहज बनाने के लिए ही प्रतिक्रमण की क्रिया करने से पहले परम उपकारी परमात्मा की स्तवनारूप चार थुई का देववंदन किया जाता है और उसके बाद चार खमासमण देकर, गुरु को वंदन करने स्वरूप मंगलाचरण किया जाता है । इस प्रकार देव-गुरु को वंदन करके, उनकी कृपा का पात्र बनकर, प्रतिक्रमण करने की शक्ति इक्कट्ठी करके, प्रतिक्रमण का प्रारंभ करते समय मस्तक को पृथ्वी पर एवं दाहिने हाथ को चरवले के उपर रखकर, मुखवस्त्रिका युक्त बाँए हाथ को मुख के आगे रखकर, यह सूत्र बोला जाता है । ऐसी मुद्रा से साधक को 'मैं अपने आप को प्रतिक्रमण में स्थापित करता हूँ', ऐसा स्पष्ट बोध होता है । वंदित्तु सूत्र बोलने से पहले भी प्रतिक्रमण की अनुज्ञा मांगने के लिए यह सूत्र बोला जाता है । आवश्यक नियुक्ति के प्रतिक्रमण आवश्यक में एवं धर्मसंग्रह तथा योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस सूत्र का सटीक उल्लेख है । मूल सूत्र: इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं ? इच्छं। सव्वस्स वि देवसिअ दुचिंतिअ दुब्भासिअ दुञ्चिट्ठिअ मिच्छा मि दुक्कडं । अक्षर -२६ अन्वय सहित संस्कृत छाया और शब्दार्थ : भगवन् ! देवसिम पडिक्कमणे ठाउं ? इच्छाकारेण संदिसह । भगवन् ! दैवसिक प्रतिक्रमणे स्थातुम् इच्छाकारेण संदिशत । हे भगवंत ! दैवसिक प्रतिक्रमण में स्थित होने की (आप मुझे) स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करें ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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