SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ अठारह पापस्थानक सूत्र I की अनुभूति होना अरति है । जहाँ राग होता है वहाँ रति होती है एवं जहाँ द्वेष होता है वहाँ अरति होती है; क्योंकि राग कारण है एवं रति कार्य है तथा द्वेष कारण है एवं अरति कार्य है । ये दोनों राग एवं रति तथा द्वेष एवं अरति, कुछ समान होते हुए कुछ अंश से अलग भी हैं । एक में (राग में) आसक्ति का परिणाम है एवं दूसरे में ( रति में) हर्ष का परिणाम है; एक में (द्वेष में) तिरस्कार का भाव है तो दूसरे में ( अरति में ) प्रतिकूलता का भाव है । निमित्त सामने हो या न हो परन्तु राग एवं द्वेष की संवेदनाएं बैठी ही रहती हैं, पर रति- अरति के परिणाम निमित्त मिलते प्रकट होते हैं, इसलिए यहाँ उनका अलग से उल्लेख किया गया है । ऐसा होते हुए राग, द्वेष की उपस्थिति में प्रायः रति- अरति के भाव मिले हुए होते हैं । इसलिए, जैसे राग युक्त या द्वेष युक्त व्यक्ति समभाव में स्थिर नहीं रह सकता, वैसे रति- अरति के परिणामवाला व्यक्ति भी समभाव या आत्म स्वभाव में स्थिर होकर आत्मिक सुख प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिए आत्मिक सुख के अभिलाषी आत्मा को रति- अरति का भी त्याग करना चाहिए । परमात्मा के वचन द्वारा रागादि मलिन भावों को दुःखरूप जानते हुए पूर्व के कुसंस्कारों के कारण व्यक्ति का मन प्रायः जीवन भर राग-द्वेष, रति- अरति के भाव से मुक्त नहीं हो सकता । उससे मुक्त होने एवं कुसंस्कारों को निर्बल करने के लिए सतत जागृति रखनी जरूरी है । रति एवं अरति के परिणाम कहाँ रहे हैं, उसको बहुत सूक्ष्म बुद्धि से जानना चाहिए, क्योंकि सतत क्रियाशील इन परिणामों का ज्यादातर तो ध्यान ही नहीं रहता, जैसे कि सोने के लिए मुलायम गद्दी एवं अनुकूल वातावरण मिला तो रति एवं जरा खुरदरी चद्दर या गर्मी आदि की प्रतिकूलता मिली हो, तो तुरंत अरति होती है। इस तरह अनेक प्रकार से अनेक स्थान पर इन राग-द्वेष एवं रति- अरति के भाव होते ही रहते हैं । परन्तु तब हमें खयाल ही नहीं आता कि, ये मुझे रति एवं अरति के भाव हुए हैं और वे मेरी आत्मा के लिए हानिकारक हैं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy