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सूत्रसंवेदना-३ इस पद का उच्चारण करते समय सतत सक्रिय रति एवं अरति के भावों को स्मृति-पट पर स्थापित करके सहज उठते इन भावों के प्रति सावधान बनना है । ये भाव आत्मा के लिए कितने खतरनाक हैं, आत्मा के सहज सुख के लिए कितने बाधक हैं एवं वे दुर्गति की परंपरा का किस तरह सृजन करते हैं, उसका विचार करके, रति-अरति की निंदा करके इन पापों से बचने के लिए मिच्छा मि दुक्कडं देना है ।
सोलमे पर-परिवाद : पाप का सोलहवाँ स्थान है : 'दूसरों का
परिवाद'. 18
पर अर्थात् पराया एवं परिवाद अर्थात् कथन; दूसरों की निंदा करना, उसे पर-परिवाद करना कहते हैं । अनादि अज्ञान के कारण जीवों को अपने से अधिक दूसरों को जानने की, दूसरों की कमजोर बातें करने की बुरी आदत होती है। इसलिए वह दूसरों की चर्चा करने का अवसर खोजता ही रहता है । इसके लिए वह स्नेही-स्वजनों को इकट्ठा करता है, मित्रों से मिलता है एवं घंटों तक दूसरों की बातें करने में समय फजूल बिता देता है । वे जानते नहीं है कि, दूसरे की निंदा करने से खुद को कितना नुकसान होता है। व्यवहार में भी कहते हैं कि, 'करोगे निंदा पर की, जाओगे नारकी' पर की निंदा करनेवाला नरक में जाने तक के कर्म का बंध करता है, क्योंकि यह परनिंदा का पाप अर्थदंड नहीं, अनर्थदंडरूप है । तदुपरांत ऐसी पर की चर्चा करनेवाले जीव कितनों को अप्रिय बनते हैं एवं उसका विरोध भी बहुत होता है । पर की निंदा करनेवाला तो देव-गुरु या गुणवान आत्मा के प्रति भी कब गलत बोले वह नहीं कह सकते । अवसर आने पर तो वह किसी को नहीं छोड़ता । पर की चर्चा में लगे रहने का रस खूब ही भयंकर है । दुःख की बात तो यह है कि पर की चर्चा या निंदा करना लोगों को पापरूप भी नहीं लगता, समय बीताने का एवं मनोरंजन का एक साधन लगता है । इसलिए मुमुक्षु साधक को तो सर्वप्रथम इस पाप को पापरूप मानना चाहिए । 18. परेषां परिवादः परपरिवादः विकत्थनम् इत्यर्थः ।