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________________ अठारह पापस्थानक सूत्र १७३ खराबी न हो तो भी उसकी बढ़ती हुई कीर्ति, यश, ऐश्वर्य, मान या स्थानादि के प्रति पैदा हुए द्वेष या ईर्ष्या के कारण उनमें न हो वैसे दोषों को बताना, उनको कलंकित करना (बदनाम करना) अभ्याख्यान है। जैसे कि परम पवित्र महासती सीताजी की बढ़ती हुई कीर्ति एवं रामचन्द्रजी की ओर से उनको मिलनेवाले मान को सहन न कर सकने के कारण रामचन्द्रजी की अन्य रानियों ने “सीता के मन में अभी भी रावण बैठा है" ऐसी अनुचित बात फैलाकर, सीता के सतीत्व को कलंकित करने का निंदनीय प्रयास किया, यह अभ्याख्यान का दृष्टांत है । अंदर रहा हुआ मान का भाव एवं पुण्य न होते हुए भी बड़ा बनने की भावना, बहुत बार जीव को इस पाप का भागी बनाता है, परन्तु किसी को भी हरा देने की वृत्तिरूप इस पाप का परिणाम अत्यंत भयंकर है । उससे भवांतर में भी सज्जनों का संयोग प्राप्त नहीं होता है एवं निष्कारण कलंकित होना पड़ता है जैसे कि महासती अंजना ने पूर्वभव में शौक्य रानी लक्ष्मीवती का उत्कर्ष सहन न होने के कारण उसे नीचा दिखाने के लिए अनेक प्रयत्न किए । अंत में परमात्मा की मूर्ति छिपाई । उसके कारण ऐसा कर्म बंध हुआ कि बाइस वर्ष तक गुणवान पति का वियोग एवं अप्रीति सहन करनी पडी । ऐसे पाप से बचने के लिए मन को प्रमोद भाव से भर देना चाहिए । किसी का गुण देखकर उसके प्रति अत्यंत प्रीति का भाव प्रकट करना चाहिए, तभी इस पाप से बच सकते हैं । इस पद का उच्चारण करते समय दिवस के दौरान या अपने जीवन काल के दौरान कभी भी ऐसा पाप हुआ हो तो उसको याद करके, उसके प्रति अत्यंत जुगुप्सा भाव प्रगट करके, “मुझ से ऐसा भयंकर पाप हो गया है ! निश्चय ही मैं पापी हूँ, अधम हूँ, अत्यन्त दुष्ट हूँ, जिससे ऐसे गुणवान व्यक्ति के प्रति भी मुझे ईर्ष्या होती है" ऐसी आत्म-निंदा द्वारा अपनी आत्मा में पड़े हुए पाप के संस्कारों को निर्मूल करने के प्रयत्नपूर्वक भावपूर्ण हृदय से मिच्छा मि दुक्कडं देना है । चौदमें पैशुन्य : पाप का चौदहवाँ स्थान है “पैशुन्य" ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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