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सूत्रसंवेदना - ३
भौजाई, देवरानी-जेठानी वगैरह के बीच भी कलह, मतभेद एवं उससे मनभेद हो जाता है ।
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खाने-पीने में, रहने-सहने में व्यापार या व्यवहार में जब एक दूसरे की आपस में नहीं बनती, तब परस्पर कलह होता है एवं इस कलह के फल स्वरूप क्रोध क्लेश पैदा होता है इसका परिणाम यह आता है, कि ऊँची आवाज में बोलचाल एवं मारामारी तक बात पहुँच जाती है । कभी कभी तो मारामारी से बढ़कर क्रोधांध व्यक्ति प्रतिपक्ष की हत्या करने से भी नहीं हिचकिचाता । प्रज्ञापना सूत्र में तो " कलहो राटि : ” ऐसा कहकर बताया गया है, कि शिकायत करते करते जोर से बोलना भी कलह-क्लेश ही है । धैर्य गँवाकर आगे पीछे का विचार किए बिना ही जोरशोर से बोलना, चिल्लाते हुए सभ्य - असभ्य शब्दों द्वारा मन चाहे तरीके से बोला जाये तो उसे कलह कहते हैं । किसी के साथ कलह करने से वैर की परंपरा चालू होती है, कुल को कलंक लगता है एवं धर्म की निंदा होती है । इसलिए, सज्जन पुरुषों को तो सदैव कलह-क्लेश एवं झगड़े से दूर ही रहना चाहिए ।
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इस पद का उच्चारण करते हुए दिवस या रात्रि में स्व - पर की चित्त वृत्ति को मलिन करनेवाले कलह-कंकास या झगड़े हुए हों तो उनको याद करके, पुनः वे पाप न हों ऐसा दृढ़ संकल्प करके उसका मिच्छा मि दुक्कडं देना है ।
तेरमें अभ्याख्यान : पाप का तेरहवाँ स्थान 'अभ्याख्यान' है ।
अविद्यमान दोष का आरोपण करना अभ्याख्यान है । किसी पर गलत आरोप लगाना, कलंक लगाना, सामनेवाले व्यक्ति में किसी भी प्रकार की - भगवती-५७२
15. महता शब्देनान्योन्यम् असमम् असम्भाषणम् कलहः ।
भगवतीजी में कहा गया है, कि ऊँची आवाज में परस्पर अयोग्य बोलना कलह है । 16. असद्दोषारोपणम् - ठाणांग में कहा है, कि न हो वैसा (असद्भूत) दोष का आरोपण, वह अभ्याख्यान है । आभिमुख्येन आख्यानं दोषाविष्करणम्
अभ्याख्यानम् ।
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