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अठारह पापस्थानक सूत्र
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राग के कामराग, स्नेहराग एवं दृष्टिराग : ऐसे तीन प्रकार हैं ।। १ - कामराग : स्थूल व्यवहार से स्पर्शेन्द्रिय का सुख जिससे प्राप्त हो, वैसे सजातीय या विजातीय व्यक्ति के प्रति राग को कामराग कहते हैं । वास्तविक दृष्टि से पांचों इन्द्रियों की सामग्री के प्रति या उनको दिलानेवाले व्यक्ति के प्रति राग, कामराग है । ___२. स्नेहराग : किसी भी प्रकार के स्वार्थ या अपेक्षा के बिना मात्र खून के संबंध के कारण या ऋणानुबंध के कारण भाई, बहन, माता-पिता, पुत्र-पुत्री या मित्र आदि के प्रति जो राग होता है उसे स्नेहराग कहते हैं । जिस राग में कोई स्वार्थ या अपेक्षा रहती हो वह वास्तव में स्नेहराग नहीं कहलाता, परन्तु परिचित या अपरिचित किसी भी व्यक्ति को देखकर किसी भी अपेक्षा के बिना मन उसकी तरफ आकर्षित हो जाए या द्रवित हो जाए तो उसे स्नेहराग कहते हैं ।
३ - दृष्टिराग : कुप्रवचन में, गलत सिद्धांत में या मिथ्यामतों में आसक्ति या अपनी गलत मान्यता का आग्रह दृष्टिराग है; तदुपरांत विवेक विहीन स्वदर्शन का राग भी कभी दृष्टि राग बनता है ।
इसके अलावा, राग प्रशस्त एवं अप्रशस्त ऐसे दो प्रकार का होता है ।
राग की परंपरा को तोड़े वैसा राग तथा दोषों का नाश करके गुणों की प्राप्ति करवाएँ वैसा राग प्रशस्त राग है । राग की परंपरा को बढ़ाए तथा दोष एवं कषाय की वृद्धि करे वैसा राग अप्रशस्त राग है । अनंतगुण के धारक अरिहंत परमात्मा के उपर या गुणवान गुरु भगवंत के उपर या गुणसंपन्न कल्याण मित्र तुल्य किसी के भी उपर गुण प्राप्ति के उपायरूप किया हुआ, विवेकपूर्ण राग गुणराग होने से प्रशस्त राग कहलाता है, क्योंकि यह राग संसार के राग को कम करता है। राग होने पर भी अप्रशस्त राग को तोड़ने के लिए प्रशस्त राग साधनरूप है । इसलिए महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि,
"राग न करजो कोइ नर किणश्युं रे,
नवि रहेवाय तो करज्यो मुनिश्युं रे" - राग पापस्थानक सज्झाय... (९) 14. राग की प्रशस्ता/अप्रशस्ता संबंधी विशेष विचारणा के लिए सूत्र संवेदना-४ 'वंदित्तु' की
गाथा ४ देखें।