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सूत्रसंवेदना-३ लोभ नाम के कषाय के कारण अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करने का मन होता है, संगृहीत चीज कहीं आगे पीछे न हो उसकी सतत चिंता रहती है एवं जरूरतमंद को दान देने की इच्छा मात्र भी नहीं होती ।
यह पद बोलते समय दिन के दौरान लोभ के अधीन होकर मन, वचन, काया से जो विपरीत आचरण किया हो उसे याद करके उसकी निंदा, गर्दा एवं प्रतिक्रमण करना है ।
दसमे राग : पाप का दशवाँ स्थान 'राग' है ।
स्वभाव से नाशवंत तथा मात्र काल्पनिक सुख को देनेवाली स्त्री, संपत्ति या मनचाही सामग्री के रंग में रंगना, आसक्त होना, प्रेम करना, लगाव रखना - ये सब राग के प्रकार हैं । यह भी कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का विकारभाव है । अयोग्य स्थान में प्रकट हुआ राग वाणी एवं वर्तन में विकार लाता है, मन को विह्वल करता है, उसके कारण अनुकूल वस्तु में मन भटकता रहता है । कहीं अनुकूल वस्तु न मिले तो उसका राग हृदय को जलाता है एवं वस्तु मिलने पर प्राप्त चीज़ हाथ से निकल न जाए इस तरह की चिंता से मन को व्याप्त रखता है । जिसके कारण रागांध जीव कहीं भी शांति का अनुभव नहीं करते । स्त्री आदि अयोग्य स्थानों में उत्पन्न हुआ राग तो अनेक जीवों की हिंसा करवाने के उपरांत कभी अपने प्राणों का भी भोग ले लेता है । रागी जीव मात्र हिंसा ही नहीं, झूठ, चोरी, परिग्रह आदि सभी पापों का भोग बनता है ।
रागी जीव का मन धर्म में या अन्य कार्यों में भी नहीं लगता । निमित्त मिलने पर मोह के उदय से जो राग प्रकट होता है वह राग पुनः नए राग के तीव्र संस्कारों को उत्पन्न करता है। इन संस्कारों के कारण जीव संसार में भवोभव भटकता है । राग के कारण जीव चिकने कर्म बांधकर दुर्गति में दुःख का भाजन बनता है । इसलिए इस राग नाम के कषाय को उठते ही समाप्त कर देना चाहिए । इसके लिए राग के निमित्तों से सदा सावधान रहना चाहिए । अनित्य, अशरण एवं अशुचि आदि भावनाओं से मन को भावित करना चाहिए । ऐसा हो तो ही राग नाम के पाप से बच सकते हैं; बाकी इस पाप से बचना बहुत मुश्किल है ।