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सूत्रसंवेदना-३
राग किए बिना न रहा जाए तो मुनि का राग करें, जो राग कर्ममुक्ति का, गुणप्राप्ति का कारण बने; परन्तु कर्मबंध का या दोषवृद्धि का कारण न बने। अमुक (प्रारंभिक) स्तर तक प्रशस्त राग उपादेय है, तो भी मोक्ष की प्राप्ति में तो यह राग भी विघ्नकर्ता ही बनता है । जैसे गौतमस्वामी का भगवान महावीरदेव के प्रति राग उनके केवलज्ञान में बाधक बना था । इसलिए साधना की विशिष्ट कक्षा में पहुँचने के बाद प्रशस्त राग को भी छोड़ देना चाहिए ।
संक्षेप में जहाँ तक अप्रशस्त राग है, वहाँ तक उसे तोड़ने के लिए प्रशस्त राग का उपयोग करना है एवं जब अप्रशस्त राग छूट जाए तब प्रशस्त राग को भी छोड़ ही देना है । विजातीय के प्रति मोहादि से हुआ राग या सामग्री आदि का राग अप्रशस्त राग है, क्योंकि उससे दोष की वृद्धि होती है। इसलिए विजातीय आदि रागी पात्रों या इन्द्रियों के अनुकूल विषयों से खूब सावधान रहना चाहिए, तो ही राग नामक दशवें पापस्थानक से बच सकते हैं।
इस पद का उच्चारण करते समय राग के तीव्र संस्कारों के कारण दिन में कहाँ और कैसे परिणामों में मैं फँस गया, उसका विचार करके, “प्रभु ! इस राग में से मैं कब छूटूंगा एवं वीतराग भाव को कब पाऊंगा ?" ऐसी संवेदनापूर्वक रागकृत भावों की निंदा, गर्दा करके प्रतिक्रमण करना चाहिए।
अगियार में द्वेष : पाप का ग्यारहवाँ स्थान 'द्वेष' है । घृणित या नापसंद वस्तु - व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति घृणा, अरुचि, अभाव, दुर्भाव या तिरस्कार का भाव, द्वेष है । यह द्वेष का भाव राग से उत्पन्न होता है । जिस वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति राग होता है, उसमें विघ्न करनेवाले, रुकावट पैदा करनेवाले व्यक्ति या वस्तु के प्रति द्वेष होता है । ऐसी वस्तु या व्यक्ति सामने आए तो उसके प्रति घृणा उत्पन्न होती है, उसके सामने देखने का मन नहीं होता, उससे दूर भागने की भावना होती है, उसके साथ कभी कार्य करना पड़े तो बैचेनी होती है, इससे कैसे छूट सकु ऐसा भाव रहता है । ये सब मलिन भाव द्वेषरूप पाप के कारण होते हैं ।