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सूत्रसंवेदना-३ कषाय दूसरे तीनों कषायों को बढावा देता है, क्योंकि अपने में तीन तीन कषाय होते हुए भी अपने को या दूसरे को खयाल भी न आए कि इस व्यक्ति में इतने इतने कषाय हैं, वैसा आवरण खड़ा करने की शक्ति इस माया में है । __ स्वार्थ वृत्ति से यह माया रूप पाप करके व्यापारी ग्राहक को, शिकारी पशु को, मछुआरा जलचर जीवों को, राजा प्रजा को, कुगुरु श्रद्धालु भक्त को, पत्नी पति को, पुत्र पिता को, पुत्री माता को, इस प्रकार अनेक रूप से जीव एक दूसरे को ठगकर दुःखी करते हैं एवं स्वयं भी दुःखी होते हैं ।।
महासुख देनेवाली धर्मक्रिया भी माया मिश्रित हो तो वह भी आनंद नहीं दे सकती । महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' नाम के ग्रंथ में इस माया को दिखाने के लिए एवं उस महादोष से जीवों को बचाने के लिए 'दंभ त्याग' नाम का एक संपूर्ण अधिकार बनाया है । उसके प्रथम श्लोक में ही उन्होंने बताया है कि, मुक्तिरूपी लता के लिए माया" अग्नि समान है, शुभ क्रियारूपी चंद्र को कलंकित करनेवाले राहु के समान है, दुर्भाग्य का कारण है एवं आध्यात्मिक सुख के लिए बेड़ी समान है ।' इसीलिए साधक को सरलता गुण का सहारा लेकर, स्वजीवन में रही हुई सूक्ष्म से सूक्ष्म माया को जानकर, उसमें से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए ।
जब भी माया करने का मन हो तब याद रखना चाहिए कि, माया के सेवन से लक्ष्मणा साध्वीजी असंख्य भव भटकीं एवं मल्लिनाथ प्रभु की आत्मा ने पूर्व के भव में संयमजीवन में तप धर्म के लिए माया की थी, उसी कारण उनको अन्तिम भव में तीर्थंकर पद में भी स्त्रीरूप की प्राप्ति हुई । यह माया स्त्री वेद एवं तिर्यंच गति का कारण है । ऐसे विचारों से अपने आप को सरल बनाकर सर्व प्रकार के मायाचार से दूर रहना चाहिए ।
इस पद का उच्चारण करते समय दिवस या रात्रि के दौरान हई माया को याद करके, अपने आप को टटोल कर पूछना चाहिए कि सफेद बालों को काला 11. दम्भो मुक्तिलतावह्नि - दम्भो राहुः क्रियाविधौ ।
दौर्भाग्यकारणं दम्भो, दम्भोऽध्यात्मसुखार्गला ।।१।।
अध्यात्मसार-३-१