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________________ अठारह पापस्थानक सूत्र । १६५ महावीरस्वामी भगवान के जीव ने जैसे मरीचि के भव में पुण्य से मिले अपने उच्च कुल का मद किया, तो उससे उन्होंने ऐसा नीच गोत्र कर्म बांधा कि जिससे तीर्थंकर के भव में भी प्रभु को ब्राह्मण जैसे भिक्षु कुल में जन्म लेना पड़ा । इसलिए इस मान-कषाय से मुक्ति पाने का सतत प्रयत्न करते रहना चाहिए । इसके लिए बारबार ऐसा सोचना चाहिए कि - ‘इतनी बड़ी दुनिया में मैं क्या हूँ ? महापुरुषों के सामने मेरी बुद्धि, बल या श्रीमंताई की क्या कीमत है ? और दुनिया में भी कहावत है कि - 'शेर के उपर सवा शेर होता है, इससे भी फलित होता है कि दुनिया में मेरा स्थान कोई विशिष्ट नहीं। ऐसा सोचकर अभिमान का सर्वथा त्याग करना चाहिए एवं जीवन को विनय-नम्रता आदि गुणों से मधुर बनाकर रखना चाहिए । .. इस पद का उच्चारण करते समय दिन में प्रकट हुए तथा अंतर में सतत प्रवर्तमान मान को स्मरण में लाना है । उसकी अनर्थकारिता का विचार कर, उसके प्रति तीव्र घृणा, अरुचि प्रकट करनी है एवं मान की निंदा, गर्दा एवं प्रतिक्रमण करके, ‘मिच्छामि दुक्कडं' देकर मान के संस्कारों का समूल नाश करने का प्रयत्न करना चाहिए । आठमे माया : पाप का आठवां स्थान 'माया' है । यह माया भी कषाय मोहनीय के उदय से होनेवाला आत्मा का विकार भाव है । कपट करना, छल करना, प्रपंच करना, ठगना, विश्वासघात करना आदि माया के ही प्रकार हैं । माया करना अर्थात् अंदर अलग भाव एवं बाहर अलग भाव दिखाना । जैसे बगुले के मन में जलचर जीवों को मारने की हिंसक वृत्ति रहती है, परन्तु वह बाह्य रूप से एक पैर पर स्थिर खड़ा रहकर भगवान का ध्यान करता हो, वैसा दिखावा करता है । यह जलचर जीवों को ठगने की ही एक प्रकृति एवं प्रवृत्ति है । उसी तरीके से खुद अच्छा, सुखी, ज्ञानी, सदाचारी, धनवान, रूपवान, युवा न होते हुए भी 'मैं अच्छा, सुखी, ज्ञानी, सदाचारी, धनवान, रूपवान एवं युवा हूं, वैसा दिखावा करना, माया है। संक्षेप में खुद का जो स्वरूप है वैसा न दिखाना एवं जैसा नहीं है वैसा दिखाना माया है । माया
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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