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सूत्रसंवेदना-३ उत्तम है, मेरे पास अधिक संपत्ति है, बल में मेरी कोई बराबरी नहीं कर सकता, मेरे जैसा रूप तो कामदेव का भी नहीं है, तप एवं ज्ञान में भी मैं दूसरों की अपेक्षा से अधिक बेहतर हूँ ।' ऐसा मानकर, 'मैं कुछ हूँ, मेरे जैसा कोई नहीं' - ऐसा अभिमान का, अहंकार का जो भाव है, वह मान है ।
मनुष्य को सब से अधिक यह मान-कषाय परेशान करता है । ऐसा कहना शायद गलत नहीं कि, मानव चौबीसों घंटे अपने गर्व को तगडा बनाने में ही प्रयत्नशील रहता है; वह अपने मान-सम्मान को बनाये रखने के लिए अनेक भौतिक सामग्री एकत्रित करता है, जरूरत से अधिक कमाता है, बड़े बंगले बनाता है, कीमती गाडियाँ खरीदता है, महंगे महंगे अलंकार पहनता है, सुंदर वस्त्र पहनता है, पाई-पाई का हिसाब रखनेवाला कृपण इन्सान भी मान रखने के लिए प्रसंग आने पर तो लाखों-करोड़ों खर्च कर डालता है, इसका कारण एक ही है - मान कषाय ।
दुःख की बात तो यह है कि, क्रोध-कषाय को सब जानते हैं, परन्तु 'मेरे में मान है एवं मान से मैं ऐसी प्रवृत्ति करता हूँ' वैसा जानना, मानना या स्वीकार करना भी व्यक्ति को मुश्किल पड़ता है । अहंकारी व्यक्ति मान के पोषण के लिए लोभ के भी अधीन होता है, माया का सहयोग भी लेता है एवं मानहानि हो तब क्रोध भी करता है । इस मान-कषाय को पहचानने के लिए एवं पहचान कर उसे हटाने के लिए सद्गुरुओं का सहवास एवं सद्ग्रंथों का पठन पाठन अति आवश्यक है।
मानवीय मन में पड़ा हुआ अभिमान इस भव में तो उसे दुःखी करता ही है, साथ ही सतत नीच गोत्र आदि कर्म को बंधवाकर भवोभव दुःखी करता है। इस भव में पुण्य से प्राप्त हुई अच्छी सामग्री के प्रति मान करने से मानवी ऐसा कर्म बांधता है कि, जिसके कारण उसे भवांतर में वह सामग्री हल्की-हीन प्राप्त होती है । 10. जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपश्रुतैः ।
कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः ।। - योगशास्त्र-४. १३ प्र.४, गा, १३