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अठारह पापस्थानक सूत्र
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एकपक्षीय क्रोध भी गुणसेन एवं अग्निशर्मा की तरह भवोभव तक वैरभाव की परंपरा चलाता है । महात्मा गुणसेन को तपस्वी की भक्ति करने की तीव्र भावना होती है, तो भी कर्म के उदय के कारण गुणसेन, तपस्वी अग्निशर्मा को पारने के लिए आमंत्रण देने के बाद भी सतत दो बार उसके पारने का दिन भूल जाता है । तब तक तो अग्निशर्मा शांत रहता है । परन्तु तीसरी बार भी जब गुणसेन पारने का दिन भूल जाता है तब अग्निशर्मा को पहले बाल्यावस्था में बारबार गुणसेन की हुई विडंबना-परेशानी का स्मरण हो आता है । फलतः स्वरूप वह अतिक्रोधित हो जाता है एवं आवेश में अपने किए हुए तप के प्रभाव से ‘भवोभव गुणसेन को मारनेवाला बनूं' ऐसा नियाणा करता है । इस क्रोध से अग्निशर्मा ऐसे अनुबंधवाले कर्म बांधता है कि हर एक भव में उसे गुणसेन की आत्मा को मारने का परिणाम ही पैदा होता है । इस तरह इस लोक एवं परलोक में प्राप्त होनेवाले क्रोध के कटु परिणाम का विचार कर क्रोध नामक पाप से बचने का सतत प्रयास करना चाहिए ।
यह पद बोलते समय दिन या रात्रि के दौरान किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति हुई घृणा, दुर्भाव या उनके प्रति हुए क्रोध के बारे में सोचकर इस प्रकार से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए कि फिर कभी भी हृदय में वैसा क्रोध प्रगट न होवे ।
सातमे मान : पाप का साँतवाँ स्थान है 'मान' ।
मान भी कषाय मोहनीय के उदय से हुआ आत्मा का विकार है । अभिमान, अहंकार, अक्कडता, असभ्यता, ‘दूसरों से मैं बेहतर हूँ' ऐसा प्रस्थापित करने की भावना, ‘दूसरों से मैं अलग हूँ' ऐसा दिखाने की भावना, अविनय इत्यादि मान के ही भिन्न भिन्न प्रकार हैं मान उत्पन्न होने के स्थान वैसे तो असंख्य हैं, परन्तु शास्त्रकारों ने इन सबका समावेश सामान्य तरीके से जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप एवं श्रुत इन आठ प्रकारों में किया है ।
'मेरी जाति उत्तम है, मेरी जाति के प्रभाव से मैं जो चाहे कर सकता हूँ, मेरा पुण्य प्रबल है, उसके प्रताप से मैं जो चाहे वह प्राप्त कर सकता हूँ, मेरा कुल