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सूत्रसंवेदना-३ चौथे मैथुन : पाप का चौथा स्थानक “मैथुन" है । मिथुन का भाव मैथुन है । वेदमोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला यह आत्मा का विकृत भाव है । मिथुन अर्थात् स्त्री-पुरुष का युगल । राग के अधीन होकर स्त्री-पुरुष की, तिर्यंच-तिर्यंचीनी की या देव-देवी की जो परस्पर भोग की प्रवृत्ति या काम-क्रीडा होती है, उसे मैथुन क्रिया कहते हैं ।
अनादिकाल से जीव में आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह ऐसी चार प्रकार की संज्ञा निहित है । उनमें मैथुन संज्ञा के अधीन बना हुआ जीव न देखने योग्य दृश्यों को देखता है, न करने योग्य चेष्टाएं करता है, न सोचने योग्य सोचता है, विजातीय को आकर्षित करने के लिए मन चाहे वस्त्रों को पहनता है, कटाक्ष करता है एवं अब्रह्म की प्रवृत्तियों में जुड़ता है । मर्यादाहीन बनी यह संज्ञा बहुत बार कुल की, जाति की या धर्म की मर्यादा का भी भंग कराती है एवं मानव से पशु जैसा आचरण करवाती है । _ 'संबोध सत्तरी' ग्रंथ में कहा है कि, इस संज्ञा के अधीन हुआ, मैथुन क्रिया में प्रवृत्त जीव दो लाख से नव लाख बेइन्द्रिय जीवों का तथा नौ लाख सूक्ष्म (असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों का संहार (नाश) करता है । मैथुन के समय, लोहे की नली में रूई भरी हो एवं उसमें तपी हुइ सलिया डालने से जिस प्रकार रुई जल जाती है, उसी प्रकार योनि में रहें जीवों का संहार (नाश) होता है, ऐसा 'तंदुलवियालिय पयन्ना' में बताया है ।
इसके अतिरिक्त, अब्रह्म की प्रवृत्ति से मैथुन संज्ञा के संस्कार तीव्र-तीव्रतम कोटि के बनते जाते हैं । इसलिए समझदार श्रावक को यथाशक्ति प्रयत्न द्वारा उसका त्याग करना चाहिए एवं वैसा सामर्थ्य न हो तब तक अत्यंत मर्यादित जीवन जीने का खास प्रयत्न करना चाहिए । 5. इत्थीणं जोणीसु, हवंति बेइंदिया य जे जीवा ।
इक्को य दुन्नि तिन्नि वि, लक्खपुहुत्तं तु उक्कोसं ।।८३।। मेहुणसन्नारुढो, नवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । तित्थयरेणं भणियं, सद्दहियव्वं पयत्तेणं ।।८६।।
- संबोधसत्तरि