________________
१६१
अठारह पापस्थानक सूत्र
इस पद का उच्चारण करते हुए, मैथुन संज्ञा के अधीन बनकर मलिन वृत्ति को पोसनेवाले कुविचार मन से किये गये हो, विकार की वृद्धि करनेवाली वाणी का व्यवहार किया हो, काम को उत्तेजित करनेवाली दुःचेष्टा काया से की हो, तो उनको याद करके, ऐसे व्यवहार के प्रति अत्यंत जुगुप्सा भाव प्रगट करके, पुनः ऐसा न हो उसके लिए अन्तःकरणपूर्वक मिच्छा मि दुक्कडं देना चाहिए । पांच परिग्रह : पाप का पाँचवां स्थान 'परिग्रह' है ।
5A
वस्तु का संग्रह करना अथवा वस्तु के प्रति ममत्व रखना परिग्रह है । धन, धान्य, घर, दुकान, वस्तु, सोना, चांदी, जर, जमीन वगैरह नौ प्रकार के परिग्रह में से किसी भी वस्तु का संग्रह करना द्रव्य परिग्रह है एवं नौ में से किसी एक का भी संचय किया हो या न किया हो, तो भी उनके प्रति ममता रखना, भाव परिग्रह है । द्रव्य से उन उन वस्तुओं का संग्रह, आरंभ-समारंभ का कारण बनता है एवं उनके प्रति ममत्वभाव या मूर्च्छा कषायरूप होने से, कर्मबंध का कारण बनती है इसलिए सुश्रावकों को अल्प परिग्रही होना चाहिए एवं पुण्य से प्राप्त हुई सामग्री में भी विशेष मूर्च्छा-ममत्वभाव न हो जाए उसकी सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि वास्तव में मूर्च्छा ही परिग्रह है ? मूर्च्छा के बिना चक्रवर्ती का राज्य भुगतनेवाला भी अपरिग्रही है एवं मूर्च्छावाला भिखारी हो तो भी वह परिग्रही है, ऐसा होते हुए भी प्रारंभिक कक्षा में वस्तु रखना एवं मूर्च्छा 5A. पहले पांच पाप स्थानों की विशेष समझ के लिए देखें सूत्र संवेदना - ४ वंदित्तु सूत्र गा. ९ से १८ का विशेषार्थ देखें ।
6. परि = चारों तरफ से अ ग्रह = स्वीकार
7.
न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा, मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ।। - दश वैका. - अ. ६ गा. २१ मूर्च्छाच्छन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः मूर्च्छारहितानां तु जगदेवापरिग्रहम् ।।
- ज्ञानसार २५.८
मूर्च्छा से ढकी हुई बुद्धिवाले को पूरा जगत परिग्रह है और मूर्च्छारहित को पूरा जगत अपरिग्रह है ।
प्राणातिपात आदि प्रथम पाँच पापस्थान से सर्वथा रुकने के लिए चित्तवृत्ति का अभ्यास क तरह करना उसके लिये सूत्र सं. ४ वंदितु सूत्र देखें ।