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अठारह पापस्थानक सूत्र
१५५ साधु साध्वीजी भगवंत प्रतिक्रमण में यह सूत्र नहीं बोलते, तो भी वे 'संथारा पोरिसी' पढते वक्त संक्षेप में इन अठारह पापों की आलोचना तो करते ही हैं ।
मूलसूत्र:
पहेले प्राणातिपात,
बीजे मृषावाद, त्रीजे अदत्तादान,
चोथे मैथुन, पांचमे परिग्रह,
छट्टे क्रोध, सातमे मान, आठमे माया, नवमे लोभ, दशमे राग, अगियार में द्वेष,
बारमे कलह, तेरमे अभ्याख्यान,
चौदमे पैशुन्य, पंदरमे रति-अरति, सोळमे परपरिवाद, सत्तरमें मायामृषावाद,
अढारमे मिथ्यात्वशल्यः ए अढार पापस्थानकमांहि माहरे जीवे जे कोई पाप सेव्युं होय, सेवराव्यु होय, सेवतां प्रत्ये अनुमोद्यं होय; ते सविहु मन, वचन, काया ए करी मिच्छा मि दुक्कडं ।