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सूत्रसंवेदना - ३
विशेषार्थ
जो पापों' का स्थान है, जिनके सेवन से पापकर्मों का बंध होता है, जो आचरण जीव को इस लोक एवं परलोक में दु:खी करता है, उस आचरण को पापस्थानक कहते हैं । ऐसे पापस्थानक अठारह हैं । यहाँ उनका क्रमशः उल्लेख किया गया है ।
पहले प्राणातिपात: पाप का पहला स्थान 'प्राणातिपात' है ।
प्राणों' का अतिपात अर्थात् प्राणों का नाश । संक्षेप में प्राणातिपात अर्थात् हिंसा । किसी भी जीव को दुःख हो, पीडा हो, परिताप हो या सर्वथा उसके प्राणों का वियोग हो, वैसी प्रवृत्ति को हिंसा कहते हैं ।
जगत् के जीव मात्र को जीवन प्रिय होता है, मरना किसी को प्रिय नहीं । जीवन में आनंद का अनुभव कर रहे निरपराधी जीवों को मात्र अपने सुख के लिए या शौक एवं आराम के लिए पीडा पहुँचाना, त्रास देना, हनन करना या उन जीवों के प्राण चले जाएं, ऐसी प्रवृत्ति करना हिंसा है ।
हिंसा करने से जीव पीड़ा पाते हैं, तड़पते हैं, दुःखी होते हैं एवं हिंसा करनेवाले के प्रति वैर की गांठ बांधते हैं । फलतः " यदि शक्ति आये तो इन लोगों को खतम करूँ," - वैसी दुर्भावना उनके मन में जागृत होती है । अतः, जिस प्रकार दूसरे पर अंगारे फेंकनेवाले खुद अपने हाथ को भी जलाते हैं, वैसे ही अन्य जीव को पीडा देने वाले या हिंसा करनेवाले भी खुद को सुख देनेवाले कोमल भावों का त्याग कर दुःख देनेवाले कठोर भावों को प्राप्त करते हैं ।
1. 'पापानां स्थानकमिति पापस्थानकम् ।' पाप शब्द की व्याख्या 'सूत्र संवेदना' भाग - १ सूत्र में देखें। 2. जीवों के जीवन जीने के साधन प्राण कहलाते हैं एवं वे पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयुष्य एवं श्वासोच्छ्वास ऐसे दस हैं । एकेन्द्रिय के ४, बेइन्द्रिय के ६, तेइन्द्रिय के ७, चउरिन्द्रिय के ८, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ९ एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं । इन (द्रव्य) प्राण का वियोग मरण कहलाता है । इस विषय का विशेष विचार सूत्र - संवेदना - ४ ' वंदित्तु' सूत्र में हैं । 3. नरक के जीवों को छोड़कर सब को अपना जीवन प्रिय होता है एवं मरण अप्रिय होता है ।