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सूत्रसंवेदना - ३
इसके बाद इस क्रोधादि विकार के ही परिणामरूप कलह, गलत कलंक, चुगली, इष्ट वस्तु पर आसक्ति, अनिष्ट में होनेवाली अरति, दूसरों के साथ सच्ची-झूठी बातें (निंदा) एवं मायापूर्वक मृषा भाषण के पाप बताये गये हैं ।
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अंत में उपर के सत्तर पापों को पाप के तौर पर स्वीकृत न करने देनेवाला, देव- गुरु और धर्म के उपर अश्रद्धा खड़ी करानेवाला एवं धर्म मार्ग में अत्यंत विघ्नभूत बननेवाला सब से बडे पाप 'मिथ्यात्वशल्य' का निर्देश किया गया है। जगत् के जीव तो इन अठारहवें पाप को पाप रूप मानते ही नहीं, मात्र लोकोत्तर जैन शासन की सूक्ष्म समझ जिसे प्राप्त हुई हो वैसे जीव ही इस पाप को पाप रूप से परखते हैं एवं उसके नाश के लिए प्रयत्न करते हैं ।
उपर्युक्त अठारह पापों को पहचान कर, उनका त्याग करने के लिए तत्पर होना ही इस सूत्र का सार है । अगर श्रावक प्रतिक्रमण की पूरी क्रिया करने में समर्थ न हो तो भी उसे इस सूत्र के एक एक पद का उच्चारण करके, दिवस या रात्रि के दौरान आचरित पापों का स्मरण करके, उनकी आलोचना, निंदा करने से नहीं चूकना चाहिए ।
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजने इन अठारह पापस्थानों को सरल तरीके से समझाने के लिए गुजराती भाषा में अति सरल गेय रागों में अठारह पापस्थान की सुन्दर सज्झाय बनाई है । जिज्ञासु वर्ग के लिए उनके अर्थ समझकर, उनको कंठस्थ करना अति आवश्यक है । पल पल पापस्थानकों का सेवन करनेवाले साधक को उनकी पंक्तियां सावधान करके बचा सकती हैं।
यहाँ जो अठारह पापस्थानक बताए हैं, उनका निर्देश 'ठाणंग सूत्र', 'प्रश्नव्याकरण' आदि आगमों में, 'प्रवचनसारोद्धार' एवं 'संथारा पोरिसी' आदि अनेक ग्रंथों में मिलता है । इस सूत्र का उपयोग श्रावक देवसिअ, राइअ, पक्खिअ आदि पांचों प्रतिक्रमण में करते हैं ।