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________________ अठारह पापस्थानक सूत्र १५३ अत्यावश्यक है, क्योंकि तब ही ख्याल आएगा कि अंतर की गहराई में कैसेकैसे कुसंस्कार पड़े हैं, मन में कैसी-कैसी मलिन वृत्तियाँ चल रही हैं एवं कषाय के अधीन बनकर हम कैसी-कैसी कुप्रवृत्तियाँ कर रहे हैं । इन बातों का ख्याल आएगा, तो ही पाप के कारणों पर घृणा होगी, तिरस्कार भाव जागृत होगा एवं उनसे वापिस लौटने का मन होगा । ऐसी तैयारी के साथ इस सूत्र का प्रत्येक पद बोला जाए तो वे पद हृदय स्पर्शी बनेंगे एवं उनसे एक शुभभावना का स्रोत उद्भव होगा, अंतर में पश्चात्ताप की अग्नि प्रगट होगी एवं यह पश्चात्ताप ही मलिन वृत्तियों का नाश करने का कार्य करेगा । ___ इसलिए, सूत्र या सूत्र के अर्थ मात्र जानने से बेहतर उसको हृदय स्पर्शी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, इतना ही नहीं, सूत्र का उच्चारण भी इस प्रकार से करना चाहिए कि पापवृत्ति या पापप्रवृत्ति करने को प्रेरित हुए मन एवं इन्द्रियाँ पीछे लौटें । ___ इस सूत्र में जो अठारह पाप स्थानों का निर्देश किया गया है, उसमें सर्वप्रथम हिंसा बताई गई है क्योंकि सर्व पापों में हिंसा का पाप मुख्य है। उपरांत अपेक्षा से हिंसा में सभी पापों का समावेश हो जाता है । कुछ पाप साक्षात् द्रव्य हिंसा का कारण बनते हैं तो कुछ भावहिंसा के कारण बनते हैं। लौकिक धर्म भी हिंसा को अधर्म और अहिंसा को धर्म मानता है एवं हिंसा को सर्व पापों में मुख्य माना जाता है। इसीलिए अठारह पाप स्थानक में उसे प्रथम रखा है। उसके बाद असत्य, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह नाम के पापस्थान बताएं हैं क्योंकि इन चार पापों को भी सभी धर्मशास्त्र पाप मानते हैं । उसके बाद क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष - इन छ: अंतरंग शत्रुओं को पाप स्थानक के रूप में बताया गया है । क्षमा, नम्रता, मृदुता, सरलता, संतोष आदि आत्मा के सुखकारक गुणों का नाश करनेवाले इन छः शत्रुओं से आत्मा खुद तो दुःखी होती है एवं साथ रहनेवाले के लिए भी वह दुःख का कारण बनती है ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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