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________________ सात लाख सूत्र १५१ इन ८४ लाख योनियों में उत्पन्न हुए जीवों की अनुपयोग से, स्वेच्छा के अधीन होकर या प्रमादादि दोषों के कारण स्वयं हिंसा की हो, अन्य के पास करवाई हो या हिंसा करते अन्य जीवों की अनुमोदना की हो तो उन सब पापों का गुरु भगवंत के पास मन से, वचन से एवं काया से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए । इस सूत्र के प्रत्येक पद को बोलते हुए आत्मशुद्धि की इच्छावाला साधक सोचता है कि “दिवस या रात्रि के दौरान मेरे द्वारा किन जीवों की कितने प्रमाण में हिंसा हुई ? मैंने हिंसा अनिवार्य संयोग में की या अपने शौक एवं अनुकूलता का साधन प्राप्त करने के लिए की ? अनिवार्य संयोग में भी जब करनी पड़ी, तब जयणापूर्वक दुःखार्द्र हृदय से की या 'संसार में जीने के लिए ऐसा तो करना ही पड़ता है, ऐसा मानकर कठोर हृदय से की ?" इन सब मुद्दों का विचारकर जिन-जिन जीवों की हिंसा हुई हो, उन-उन जीवों का स्मरण कर, उन जीवों संबंधी हुए अपराधों के प्रति मन में क्षमा का भाव प्रकट करके, वाणी को कोमल बनाकर, उन अपराधों की स्वीकृति रूप काया को झुकाकर उन जीवों को दुःखार्द्र हृदय से मिच्छा मि दुक्कडं देना चाहिए । मिच्छा मि दुक्कडं देते हुए प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए, "हे नाथ ! कब मेरा ऐसा धन्य दिवस आयेगा कि जब मैं सब जीवों को मित्र समान मानूँगा ? एवं उन जीवों को लेशमात्र भी पीड़ा न हो वैसा जीवन जीऊँगा ? हे प्रभु ! जीवों के अपराध से जब तक मैं नहीं रुकूँगा तब तक उन जीवों के साथ के पैर का अनुबंध भी नही छूटेंगा और कर्मबंध भी होता रहेगा, इसलिए मुझे सर्व प्रथम सर्व जीवों की हिंसा से रुकना है, तो हे प्रभु ! मुझ में ऐसा सत्त्व प्रगट करवाइए कि, जिससे मैं संयम जीवन स्वीकार कर उसका निरतिचार पालन कर जीवों की हिंसा से बच पाऊँ ।”
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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