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________________ १४४ सूत्रसंवेदना-३ सूई के अग्र भाग पर रही हुई शस्त्र से हनन नही हुई मिट्टी आदि, बादर पृथ्वीकाय के असंख्य जीवों का पीण्ड होता है । शास्त्र में कहा है कि, हरे आँवले के बराबर नमक आदि पृथ्वीकार्य में जितने जीव रहते हैं, उन प्रत्येक जीव का शरीर यदि कबूतर के बराबर हो जाय तो वे जीव एक लाख योजन (लगभग १३,००,००० कि.मी.) जितने विशाल जम्बूद्वीप में भी न समा पाएंगे । धन की लालसा से, अनुकूलता के राग से, प्रतिकूलता के द्वेष से एवं मोहाधीनता के कारण आदमी खेती करके, मकान बनाकर, खुदाई करके जमीन में से धातु रत्न आदि निकालकर वगैरह अनेक तरह से इन पृथ्वीकाय की हिंसा करता हैं । यह पद बोलते हुए अनेक प्रकार से की गई पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा को स्मरण में लाकर उन जीवों से क्षमा मांगनी चाहिए । सात लाख अप्काय : अप्काय जीवों की योनि सात लाख है । जिनका शरीर पानीरूप है, वैसे जीवों को अप्काय कहते हैं एवं शास्त्र में उनके उत्पन्न होने के स्थान सात लाख प्रकार के बताए गये हैं । अप्काय जीवों के भी दो प्रकार हैं : सूक्ष्म एवं बादर । उनमें बादर अप्काय जीव लोक के अमुक भाग में ही रहते हैं । ओस, बरफ, कुहासा, करा, धनोदधि, वनस्पति के उपर फूटकर निकलता पानी, बरसात, कुंआ-तालाब आदि का पानी, समुद्र वगैरह स्थानों का खारा, खट्टा, मीठा आदि पानी इत्यादि अप्काय के अनेक प्रकार हैं । पानी की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं। वे हर एक जीव यदि सरसों के दाने जैसे बडे शरीरवाले हो जाएँ, तो जम्बूद्वीप में नहीं समा सकते । रसोई, स्नान Swimming, Water Park, साफ सफाई आदि अनेक क्रियाओं द्वारा इन जीवों की विराधना अर्थात् हिंसा होती है । यह पद बोलते हुए विविध प्रकार के पानी के जीवों की हिंसा को याद करके उन जीवों से माफी मांगनी चाहिए। 4. अद्दामलयापमाणे, पुढवीकाए हवंति जे जीवा । ते पारेवयमित्ता, 'जंबूदीवे न मायंति ।।९४ ।। - संबोधसत्तरि 5. एगमि उदगबिंदुमि, जे जीवा जिणवरेहिं पन्नता ते जइ सरिसवमित्ता, जंबूदीवे न मायंति ।।९५ ।। - संबोधसत्तरि
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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