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सात लाख सूत्र
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कहलाते हैं । स्थावर जीवों को एक ही इन्द्रिय होती हैं । उनके पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति ऐसे पाँच प्रकार हैं । उनमें जिनका शरीर पृथ्वीरूप' है, उन्हें पृथ्वीकाय कहते हैं । इन पृथ्वीकाय जीवों के उत्पन्न होने के स्थान सात लाख प्रकार के हैं।
प्रत्येक वनस्पतिकाय के अलावा पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावर जीव सूक्ष्म एवं बादर दो प्रकार के होते हैं । उनमें सूक्ष्म पृथ्वी आदि पाँचों प्रकार के जीव चौदह राज-लोक में व्याप्त हैं एवं उनकी हिंसा वचन, काया से नहीं हो सकती, तो भी उनके प्रति किया हुआ अशुभ मनोयोग जीव को पाप कर्मों का बंध करवाता है।
बादर पृथ्वीकाय जीव लोक के नियत भाग में ही रहते हैं । लाल, काली, पीली, सफेद वगैरह मिट्टी, पत्थर वगैरह की अनेक जातियाँ, विविध प्रकार के नमक वगैरह, हरेक प्रकार के क्षार, सोना, चांदी आदि धातुएँ, वज्र, मणि आदि रत्न, अभ्रक, पारा, मणशील, हिंगलोक वगैरह पृथ्वीकाय के जीव हैं, पर सामान्य तौर से जैसे माना जाते हैं वैसे अजीव जड पदार्थ नहीं हैं। 1. पृथ्वीकाय आदि जीवों के विशेष स्वरूप को जानने की इच्छावाले जिज्ञासु शांतिचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का बनाया हुआ जीवविचार ग्रंथ खास पढ़ें । तदुपरांत पृथ्वी आदि पांचों स्थावर जीवरूप हैं, उसका सबूत ‘आचारांग' 'जीवाभिगम' वगैरह आगमों में तथा 'पंचवस्तु' ग्रंथों में दिया गया है। जो इन सब ग्रंथों के पढने का अधिकारी नहीं हैं वे गुजराती भाषा में लिखी हुइ धीरजलाल टोकरशी की 'जीवविचार प्रकाशिका' नाम की पुस्तक द्वारा उसका ज्ञान पायें । विशेष जिज्ञासुओं को तो इन सब ग्रंथों का पठन-पाठन-श्रवण अवश्य करना चाहिए । 2. पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावर जीव एकेन्द्रिय होते हैं । इन्द्रियाँ पांच हैं - त्वचा, जीभ, नाक,
आंख एवं कान । उनमें से मात्र त्वचारूप एक ही इन्द्रिय जिसे होती है उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं । चमड़ी एवं जीभ इस तरह दो इन्द्रिय हों उन्हें बेइन्द्रिय कहते हैं । चमडी, जीभ एवं नाक इस प्रकार तीन इन्द्रियोंवाले तेइन्द्रिय कहलाते हैं । चमडी, जीभ, नाक एवं आँख इस प्रकार चार इन्द्रियाँ हों उन्हें चउरिन्द्रिय कहते हैं एवं जिन्हें चमडी, जीभ, नाक, आँख एवं कान : इस प्रकार पांच इन्द्रियाँ हों उन्हे पंचेन्द्रिय कहते हैं ।। 3. असंख्य एवं अनंत जीव एकत्रित हों तो भी चर्मचक्षु से जिन्हें देख न सकें ऐसे जीवों को तथा
जिन जीवों को भेदा न जा सके, छेदा न जा सके, पानी से भीगो न सकें, अपने व्यवहार में आएँ नहीं, उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं । सूक्ष्म पृथ्वी आदि पांचों ही सूक्ष्म स्थावर जीव चौदह राजलोक में ठूस ठूस कर भरे हैं। असंख्य या अनेक इकट्ठे होने के बाद चर्मचक्षु से देख सकते हैं उन्हें बादर पृथ्वीकायादि कहते हैं एवं वे लोक के नियत भाग में रहते हैं ।