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________________ १३८ सूत्रसंवेदना-३ के संस्कारों का अनुमोदन होने में रुकावट आ जाती है, एवं निंदा द्वारा उन कुसंस्कारों का उन्मूलन भी होता है । जिज्ञासा : कषाय के अधीन होकर गुरु की आशातना करने के बाद इस तरीके से कोई आत्म-निंदा कर सकता है ? तृप्ति : जीव भावुक द्रव्य है । अतः उसको जैसा निमित्त मिलता है वह वैसे भाववाला बन जाता है । कभी भावविभोर हो जाता है तो कभी निमित्त मिलने पर कषाय के अधीन होकर गुरु की आशातना कर बैठता है । फिर भी अगर चित्त प्रशांत होने के बाद वह भूल का विचार करे तो उसे अपनी भूल समझ में आती है एवं उस भूल की वह आत्मसाक्षी से निंदा भी करता है । इसके अलावा कुछ कषाय अल्पजीवी होते हैं, अतः वे जल्दी शांत हो जाते हैं और बाद में जीव अपनी भूल समझ जाता है । इसके उपरांत सोचें तो जीव खद अच्छा होने के बावजद कभी-कभार कर्म का जोर बढ़ जाने से उससे भूल हो जाती है, परन्तु कषायों का जोर कम होने से वह निंदा-गर्दा पश्चाताप-प्रायश्चित्त करता है ।। गर्दा : गुरु की साक्षी में अपनी दुष्ट आत्मा की निंदा करना गर्दा है । कषाय के अधीन हुआ जीव अयोग्य व्यवहार करके उसको सही मानता है और उस कार्य की पुनः पुनः अनुमोदना करता है, परन्तु जब उसका चित्त शांत-प्रशांत बनता है (कषाय शांत हो जाते हैं), तब उसे गुरु के प्रति हुए अपने अयोग्य व्यवहार का खयाल आता है । खयाल आते ही वह गुण के सागर गुरु भगवंत के पास बैठकर अपनी भूलों का एकरार करता है । 'मुझ से यह अत्यंत अयोग्य व्यवहार हुआ है, आप मुझे क्षमा करें ।' ऐसा कहकर वह गुरु के पास गर्दा करता है याने गुरु के समक्ष अपनी निंदा करता है । इस तरह गर्दा करने से पाप के संस्कार धीरे धीरे मंद मंदतर होकर नष्ट हो जाते हैं । जिज्ञासा : निंदा एवं गर्दा में क्या फर्क है ? तृप्ति : आत्मसाक्षी से खुद के दुष्कृत्यों के प्रति तिरस्कार भाव पैदा करना निंदा है एवं जिन पापों की निंदा की हो, उन पापों के प्रति तिरस्कार अधिक ज्वलंत करके पाप का विशेष नाश करने के लिए गुणवान गुरु भगवंत के पास निष्कपट भाव से भूल का स्वीकार करना गर्दा है ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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