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सुगुरु वंदन सूत्र
मुझ से जो जो दोष हो जाए हों, सामायिक का व्रत ग्रहण करने के बाद भी विषम भाव में आकर आप के प्रति विचित्र व्यवहार हुआ हो, तो हे भगवंत ! इन दोषों से वापिस आने रूप उनका प्रतिक्रमण करता हूँ । आत्मसाक्षी से उनकी निंदा करता हूँ, गुरु के समक्ष उनकी गर्हा करता हूँ एवं दोष रूप अपनी आत्मा को वोसिराता हूँ अर्थात् दुष्ट पर्यायों का त्याग करता हूँ ।'
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प्रतिक्रमण : प्रतिक्रमण करना अर्थात् वापिस आना । गुरु संबंधी आशातना से इस तरीके से पीछे आना कि पुनः वैसी आशातना की संभावना न रहे ।
जिस प्रकार धार्मिक संस्कारों से संस्कारित जैन कुल में जन्मे बालकों के मन में मांस के प्रति ऐसी घृणा होती है कि, निमित्त मिलने पर भी उनको मांस खाने की इच्छा नहीं होती, उसी प्रकार गुरु आशातनाओं के फल आदि का विचार करके आत्मा को इस तरह शिक्षित करना चाहिए कि पुनः कभी भी गुरु की आशातना का परिणाम अंतर में प्रकट न हो । यह मुख्यरूप से (उत्सर्ग मार्ग) प्रतिक्रमण है एवं किसी संयोगवश गुरु की आशातना हो भी जाए तो प्रतिक्रमणादि क्रिया करके गुरु के प्रति अहोभाव इस प्रकार से प्रकट करना चाहिए कि पुनः गुरु की आशातना का पाप हो ही नहीं । वह गौणरूप से (अपवाद से) प्रतिक्रमण है।
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निंदा : गुरु के प्रति हुई अपनी भूलों का मनोमन तिरस्कार करना निन्दा है । गुरु के प्रति बहुमान मोक्ष मार्ग में गति देनेवाला है एवं गुरु की आशातना मोक्षमार्गरुपी रत्नत्रयी का विनाश करती है । ऐसे दृढ़ भाव जिनके हृदय में स्थिर हुए हों, वैसी भवभीरु आत्माएँ जानबूझकर गुरु की आशातना हर्गिज़ नहीं करती । सावधानी रखने के बावजूद भी अज्ञानवश या विषय कषाय के अधीन होकर कभी गुरु की आशातना होने की संभावना रहती है । आशातना होने पर पश्चात्ताप सहित आत्मसाक्षी से ऐसा सोचना कि, “गुरु की आशातना करके मैंने महापाप किया है, मैंने अपने आप अपनी आत्मा का अहित किया है । मैंने ही अपनी भव परंपरा बढ़ाई है । वास्तव में मैं पापी हूँ, अधम हूँ, दुष्ट हूँ ।' ऐसा विचार ही आत्मनिंदा है । इस प्रकार आत्म निंदा करने से आशातनाजन्य पाप 7. मूलपदे पडिक्कमणुं भाख्युं, पापतणुं अण करवुं रे....
महामहोपाध्याय यशोविजयजी कृत १५० गाथा का स्तवन ढाल -२/१८