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सुगुरु वंदन सूत्र
नहीं रहेगी एवं आपके जैसे सद्गुरु के सहारे संसार मागर तैर सकूँगा। सव्वमिच्छोवयाराए - सर्व मिथ्या उपचार से (जो आशातना हुई हो उसका हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।)
उपचार का अर्थ भक्ति होता है एवं मिथ्या उपचार अर्थात् गलत तरीके से की हुई भक्ति अथवा विपरीत आशय से की हुई भक्ति ।
भक्ति करनेवाले शिष्य को 'किस तरीके से भक्ति करूं तो गुरु भगवंत को अनुकूल होगा, उनके मन को संतोष होगा,' ऐसा विचार कर भक्ति करनी चाहिए । उसके बदले गुरु की प्रतिकूलता या असंतोष का कारण बने, वैसी भक्ति करना, गलत तरीके से की हुई भक्ति है । जैसे कि, वायु की, कफ की प्रकृतिवाले गुरु को ठंडा आहार लाकर देना, उनकी शुश्रूषा-सेवा भी इस तरीके से करना कि, उनका दर्द या उनकी पीड़ा हलकी होने के बजाय बढ़ जाए, वस्त्र-पात्र या स्थान भी ऐसा देना जो उनको अनुकूल न हो, इस प्रकार गुरु भगवंत की अनुकूलता या प्रतिकूलता का विचार किए बिना अपनी इच्छा को मुख्यता देना मिथ्या उपचार है ।
गलत तरीके से की हुई भक्ति जैसे मिथ्या उपचार है, वैसे गलत आशय से की हुई भक्ति भी मिथ्या भक्ति है, जैसे कि, गुरु की भक्ति आदि सब क्रियाएँ कर्म नाश का कारण बनें उस प्रकार से न करना । शिष्य यदि संवेगादि भाव से भक्ति करे, तो जैसे जैसे वह गुरु की भक्ति, विनयादि करता जाए वैसे वैसे वह आत्मभाव के अभिमुख बनता जाता है; परन्तु अगर संवेग के बजाय मानकीर्ति की कामना से, गुरु को अच्छा लगने के लिए अथवा भक्ति करूँगा तो प्रसन्न हुए गुरु मेरी अच्छी तरह देखभाल करेंगे, अमुक अनुकूलताएं देंगे' ऐसे कोई भी इहलौकिक या पारलौकिक भौतिक आशय से प्रेरित होकर अगर शिष्य गुरु की भक्ति करे तो वह भक्ति गुरु के चित्त को संतोष देने में सफल नहीं होती । ऐसी अनुचित विवेकहीन भक्ति कर्मनाश के बदले कर्म बंध का कारण बनती है । शिष्य के आंतरिक आशयों से अनजान गुरु यदि शिष्य के बाह्य