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सूत्रसंवेदना-३
अगर उनके प्रति श्रद्धा प्रगट न हो, सच्चा समर्पण भाव न उठता हो, आदर या बहुमान जागृत न होता हो, उनकी आज्ञा में विकल्प उठते हों या भक्ति करने का उल्लास न होता हो तो समझना चाहिए कि, भूतकाल में अवश्य गुरु संबंधी कोई आशातना हुई होगी ।
उदाहरण स्वरूप, भूतकाल में पुण्य योग से सद्गुरु मिले भी होंगे, परन्तु मानादि दोषों के कारण सद्गुरु की आज्ञा नहीं मानी होगी, उनके प्रति आदर या बहुमान नहीं रखा होगा, उनके प्रति विनय प्रदर्शित करने में खामी रही होंगी आज्ञा का पालन नहीं किया होगा, शायद कभी किया भी होगा तो बहुमानपूर्वक नहीं किया होगा, संयम जीवन स्वीकार करने के बाद भावपूर्वक गुरु चरणों में जीवन समर्पित नहीं किया होगा या गुरु वचन में शंका-कुशंकाएं की होंगी, इन से ही ऐसे कर्म बांधे होंगे कि गौतम जैसे उत्तम गुरु तो मिले नहीं लेकिन इस काल के अनुरूप अच्छे गुरु मिले हैं तो भी उनके प्रति सद्भाव पैदा नहीं होता, आज्ञापालन का उल्लास जागृत नहीं होता या उनकी हितकारी बातों में श्रद्धा नहीं होती ।
इस तरीके से अब तक के अविनय आदि से अनुमान करके, भूतकाल में हुई गुरु आशातनाओं का अंदाज मिल सकता है एवं उसके आधार से भूतकाल की आशातनाओं के प्रति जुगुप्सा हो सकती है ।
इस पद का उच्चारण करते समय तीनों कालों संबंधी गुरु भगवंत की जो आशातनाएँ हई हों, उनको स्मरण में लाकर सोचना चाहिए,
“भवसागर से तारनेवाले कल्याणकारी गुरु भगवंत की जो आशातना हुई है वह अत्यंत लज्जाहीन कृत्य है । ऐसा करके मैंने अपने ही भव की परंपरा बढ़ाई है । अपने आप को हित के मार्ग से दूर ढकेल दिया है । हे भगवंत ! ऐसे दोषों की मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके द्वारा गाढ बने हुए कुसंस्कारों को उखाडने का प्रयत्न करता हूँ । यदि ये कुसंस्कार मूल से शिथिल होंगे तो ही भविष्य में ऐसे दोषों की संभावना