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________________ १३२ सूत्रसंवेदना-३ अपने मलिन वस्त्र या अंग से गुरु के शरीर का स्पर्श करते हुए चलना, बैठना, गुरु के आसन को पैर लगाना, आवेश में आकर गुरु के साथ खटपट करना, वंदनादि क्रिया के बिना गुरु के शरीर को स्नेहवश स्पर्श करना या उनको स्पर्श करके बैठना-उठना वगैरह सभी क्रियाएँ काया संबंधी दुष्कृत्य हैं। यह पद बोलते समये शिष्य सोचता है, "जिस मन, वचन एवं काया से गुरु भगवंत की भक्ति करनी चाहिए, उन्ही से मैंने उनकी आशातना की है । वास्तव में मैंने भयंकर भूल की है । पश्चात्तापपूर्ण हृदय से मैं इस भूल की क्षमा मांगता हूँ एवं पुनः ऐसी भूल न हो, वैसे संकल्प के साथ निंदा, गर्हा एवं उसका प्रतिक्रमण करता हूँ ।” कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए - क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से (जो कोई आशातना की हो, उनका हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।) क्रोध के अधीन होकर गुरु भगवंत के साथ अनुचित व्यवहार करना, उनके हितकारी वचनों को सुनकर आवेश में आ जाना, अकड़कर ऊँचे स्वर में बोलना, मारामारी तक आ जाना वगैरह प्रवृत्ति क्रोध से हुई गुरु की आशातना है । अभिमानपूर्वक, अपने को गुरु से अधिक साबित करने की इच्छा, गुरु से मान की अपेक्षा, गुरु द्वारा मान न मिलने पर गुरु के लिए मन चाहा सोचना या बोलना, गोष्टामाहिल की तरह मान के अधीन होकर गुरु की बात का स्वीकार नहीं करना, मान से हुई गुरु की आशातना है । गुरु के साथ छलकपट भरा व्यवहार करना, हृदय में न हो वैसा भाव गुरु के समक्ष प्रकट करना, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए विनयरत्न साधु की तरह बाहर से विनयाँ होने का दिखावा करके, अंदर से गुरु के प्रति वैर भाव रखना,
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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