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सुगुरु वंदन सूत्र
१२९ तैंतीस आशातनाओं को द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावरूप चार प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं । ___ सुयोग्य शिष्य को संयम साधना के अनुकूल कोई भी उत्तम वस्तु की प्राप्ति हो तब उसके द्वारा ज्ञानादि गुण-पर्याय में अधिक गुरु भगवंत की भक्ति करनी चाहिए, जिससे उनमें रहे हुए गुणों की अनुमोदना हो एवं साधना में सहायक सामग्री द्वारा गुरु भगवंत भी अपने संयमदि की वृद्धि कर सकें । ऐसा होते हुए भी, प्रमाद या निर्विचारकता के कारण मिली हुई सुयोग्य वस्तु से गुरु की भक्ति करने के बदले उस चीज का उपयोग खुद के लिए किया हो, तो वह गुरु भगवंत की द्रव्य विषयक आशातना है ।
गुरु के कार्य में विघ्नरूप न बने अथवा किसी भी तरीके से गुरु की आशातना न हो, उसके लिए गुणवान साधक बिना कारण गुरु के एकदम नजदीक बैठता, उठता या चलता नहीं है। इसके बावजूद प्रमाद या अज्ञान आदि
(१८) गुरु रात्रि में कोई जग रहा है ? ऐसा प्रश्न पूछे, तब जागते हुए भी जवाब नहीं देना । (१९) रात्रि के सिवाय अन्य समय में भी जवाब नहीं देना । (२०) गुरु महाराज बुलाए तो आसन पर बैठे बैठे या शयन पर सोते सोते ही जवाब देना । (२१) गुरु बुलाए तो क्या है ?' ऐसा कठोरता से बोलना । (२२) गुरु को असभ्य तरीके से बुलाना । (२३) आप भी आलसी हैं' ऐसा कहकर उनका कहा हुआ काम न करना । (२४) बहुत ऊंचे और कर्कश स्वर से वंदन करना । (२५) गुरु बातचीत करते हों या उपदेश देते हों तब, बीच में टांग अडाकर कहना कि 'यह ऐसा है, वैसा है' वगैरह । (२६) 'तुम को पाप नहीं लगता ?' वगैरह बोलना । (२७) गुरु वाक्य की प्रशंसा नहीं करना । (२८) गुरु धर्मकथा करते हों उस समय 'अब छोड़ो ये बातें ! भिक्षा का समय, सूत्र पोरिसी का
समय या आहार का समय हो गया है,' वगैरह बोलना । (२९) गुरु बात करते हों तब बीच में बोलना, गुरु की बात तोड़ना । (३०) गुरु के समान आसन, सदृश आसन या ऊंचे आसन पर बैठना । (३१) खुद विशेष धर्मकथा कहना । (३२) गुरु के आसन को पैर लगाना अथवा भूल से लग जाए तो खमाना नहीं । (३३) गुरु की शय्या या आसन पर बैठना । - गुरुवंदन भाष्या गा. ३५-३६-३७