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सूत्रसंवेदना-३ ___ दिन में अवश्य करने योग्य चरण-करण के जो योग हैं, उन्हें आवश्यकी कहते हैं । उन सब को गुरु के अधीन होकर अप्रमत्त भाव से करना है परन्तु प्रमादादि दोषों के कारण वे कर्तव्य गुरु के बताए हुई विधि से न किए हों, गुरु ने कहा वैसे किया हों परन्तु ऊपरी तौर से किये हों और आत्मिक भाव से न किए हों, लक्ष्य के साथ मन-वचन एवं काया का योजन न किया हो, तो ये सब आवश्यकी संबंधी अपराध हैं । उन सब अपराधों का हे भगवंत ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् पुनः वह अपराध न हो इस प्रकार उनसे पीछे हटता हूँ ।
इन सब अपराधों की सामान्य रूप से क्षमापना करने के बाद अब विशेष रूप से क्षमापना करने के लिए शिष्य कहता है -
खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तिसन्नयराए - दिन के दौरान (आप क्षमाश्रमण की) तैंतीश में से कोई भी आशातना हुई हो, (उनका हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।)
गुरुवंदन भाष्यादि में गुरु संबंधी तैंतीस आशातनाएँ बताई गई हैं । इन 6. तैंतीस आशातनाओं की गिनती निम्नलिखित प्रकार से होती है -
(१) कारण के बिना गुरु के बहुत पास रहकर आगे चलना । (२) कारण के बिना गुरु के समीप रहकर बगल में चलना । (३) कारण के बिना गुरु के पीछे बिल्कुल नजदीक चलना । (४) कारण के बिना गुरु के आगे ही खड़ा रहना । (५) कारण के बिना गुरु के बगल में एकदम नजदीक खड़ा रहना । (६) कारण के बिना गुरु के पीछे एकदम नजदीक खड़े रहना । (७) कारण के बिना गुरु के आगे बैठना । (८) कारण के बिना गुरु के करीब बगल में बैठना । (९) कारण के बिना गुरु के पीछे नजदीक से बैठना । (१०) गुरु के पहले स्थंडिल भूमि से वापिस आना । (११) गुरु किसी के साथ बात करे तो पहले खुद बातचीत करना । (१२) गुरु के साथ ही बाहर से आने पर भी पहले 'इरियावहियं' करना । (१३) दूसरों के पास गोचरी की आलोचना करने के बाद गुरु के पास आलोचना करना। (१४) गोचरी दूसरे को बताने के बाद गुरु को बताना । (१५) गुरु की आज्ञा के बिना गोचरी किसी को देना । (१६) प्रथम दूसरे को निमंत्रण देकर बाद में गुरु को निमंत्रण देना । (१७) गुरु को जैसा-तैसा देकर अच्छा अच्छा खुद ले लेना ।