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सुगुरु वंदन सूत्र
[ अहमवि खामि तुमं ] - मैं भी तुम्हें खमाता हूं ।
शिष्य के हित के लिए गुरु भी जब सारणा, वारणा, चोयप्पा या पडिचोयणा करते हैं, तब कभी अपनी असहिष्णुता के कारण कषाय के अधीन हुए हों तो भी अपने समर्पित शिष्य के हित की चिंता करनी गुरु का कर्तव्य है, परन्तु अपने प्रमादादि-दोषों के कारण शिष्य के हित की उपेक्षा हुई हो तो इन शब्दों द्वारा गुरु भी शिष्य से क्षमायाचना करते हैं ।
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जिज्ञासा : गुरु के प्रति हुए अपराधों के लिए शिष्य क्षमा मांगें वह तो ठीक है, परन्तु गुरु शिष्य से क्षमा मांगे, क्या यह योग्य है ?
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तृप्ति : जैनशासन अत्यंत विवेक प्रधान है एवं सूक्ष्म भावों को देखनेवाला है । किसी के भी अशुभ भाव अहित करनेवाले ही होते हैं, चाहे वे गुरु के हों या शिष्य के । इसलिए जिस शिष्य की जिम्मेदारी गुरु ने स्वीकार की हो, उसके हित की उपेक्षा या उसके प्रति कषाय कृत अनुचित व्यवहार गुरु के लिए भी कर्मबंधन का ही निमित्त बनता है । इसलिए ऐसी कोई भी भूल हुई हो, तो पुनः ऐसी भूल न हो वैसे भावपूर्वक गुरु भी इन शब्दों द्वारा क्षमा मांगे वह उचित ही है एवं यह उनकी महानता और सरलता का भी सूचक है ।
उसके बाद सामान्य से क्षमा मांगते
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शिष्य कहता है :
आवस्सियाए पडिक्कमामि आवश्यकी संबंधी मैं प्रतिक्रमण
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करता हूँ ।
4 १. शिष्य को कर्त्तव्य का स्मरण करवाना सायणा है ।
२. शिष्य को नम्र शब्दों द्वारा अकर्तव्य से रोकना वायणा है ।
३. नम्र शब्दों से सारणा - वायणा करते हुए भी परिणाम न आए तो कठोर शब्दों से सायणावाया करना चोयणा है ।
४. कठोर शब्दों से सारणा - वायणा करने के बाद भी परिणाम न आए तो तर्जन - ताडन आदि द्वारा सारणा-वायणा करना पडिचोयणा है ।
5 'अणुजाणामि मे मिउग्गहं' - इन शब्दों द्वारा शिष्य ने गुरु के मित अवग्रह में प्रवेश करने की अनुज्ञा मांगी थी एवं निसीहि कहकर अवग्रह में प्रवेश किया था । उसके बाद अवग्रह से बहार निकलते समय 'आवस्सहि' समाचारी का पालन करने के लिए आवस्सिआए शब्द बोलकर वह अवग्रह के बहार निकलता है । दूसरी बार जब वंदन करता है, तब अवग्रह में रहकर ही आलोचना आदि कार्य करने से 'आवस्सिआए' शब्द का प्रयोग जरूरी नहीं रहता ।