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सूत्रसंवेदना-३
यापना पृच्छनास्थान के इन दो पदों का उच्चारण एवं श्रवण करते हुए सोचना चाहिए,
“कहाँ मेरी अनियंत्रित इन्द्रियाँ एवं मन और कहाँ मेरे गुरु भगवंत का सदा उपशम भाव में झूलता मन एवं इन्द्रियाँ ! ऐसे गुरु भगवंत को नमस्कार करके अंतर की एक अभिलाषा है कि, मैं भी कक्षायों का उपशम करने में समर्थ बनूँ एवं उनकी कृपा पाकर अनादिकाल से विषयों में आसक्त बनी हुई अपनी
इन्द्रियों को भी संयमित बनाऊं ।” ६.अपराधक्षमापना स्थान :
इस प्रकार संयमादि विषयक पृच्छा करने के बाद, गुणवान गुरु की आशातना भवभ्रमण की वृद्धि का कारण बनती है। अतः भवभीरु शिष्य अपने अपराध की क्षमापना करने के लिए कहता है :
खामेमि खमासमणो ! देवसिअं वइक्कम - हे क्षमाश्रमण ! दिन में हुए व्यतिक्रम-अपराधों की मैं क्षमा मांगता हूँ । ___ शिष्य गुरु से कहता है कि - 'हे भगवंत ! आज के दिन विनय, वैयावच्च
आदि कोई भी कार्य करते हुए अनाभोग से, सहसात्कार से या कषायादि दोषों के अधीन होकर आप के प्रति मेरा कोई भी अविनय, अपराध हुआ हो तो उसकी मैं क्षमायाचना करता हूँ' । किस प्रकार के अपराध हो सकते हैं, उसे आगे सूत्रकार खुद ही स्पष्ट करेंगे ।
इस पद का उच्चारण करते समय गुणवान गुरु के प्रति हुए अपराध का स्मरण करके ऐसे अपराध पुनः पुनः न हों वैसे दृढ़ प्रतिधान पूर्वक गुरु भगवंत से क्षमापना करनी चाहिए; तो ही प्रमादादि दोषों से हुए अपराध टल सकते हैं, उपयोगशून्यत्य से इन पदों को बोला जाए तो कोई अर्थ नहीं निकलता। शिष्य के ये शब्द सुनकर गुरु कहते हैं -