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________________ सुगुरु वंदन सूत्र ' तुम जिस प्रकार से पूछ रहे हो उस प्रकार ही मेरा मन एवं मेरी इन्द्रियाँ उपशम भाव में स्थिर हैं ।' आत्मिक गुण संपत्ति में रमण करनेवाले गुरु का यह उत्तर सुनकर शिष्य को अत्यंत हर्ष होता है, उसका चित्त प्रमुदित होता है । इससे उसमें गुणप्राप्ति के लिए शक्ति का संचय होता है, जो परंपरा से उसे अनासक्त भाव तक पहुँचाती है । जिज्ञासा : 'बहुसुभेण भे' - पद द्वारा आप का दिन सुखपूर्वक बीता है ? ऐसा पूछने से पूर्व के दोनों प्रश्नों का जवाब मिल गया था, फिर भी दुबारा संयम यात्रा एवं यापनिका विषयक अलग प्रश्न पूछने की क्या आवश्यकता है ? १२५ तृप्ति : गुरु संबंधी अनेक कार्यों में तप एवं संयमरूप कार्य का विशेष प्राधान्य है । इसलिए ' जत्ता भे' शब्द से संयम यात्रा संबंधी अलग पृच्छा की गई है । इसके अलावा, आत्माभिमुख बनी हुई गुरु भगवंतों की इन्द्रियाँ एवं मन साधना में बाधक नहीं बनता । रोगादि की प्रतिकूलता में भी वे तो मस्ती से अपनी साधना करते रहते हैं, पर गुरु के प्रति भक्तिवाले साधक की ऐसी सतत भावना रहती है कि, यदि मेरे गुरु भगवंत की इन्द्रियाँ एवं मन अनुकूल हों, रोगादि पीडा से रहित हों, तो वे उत्तम साधना कर सकेंगे । इसलिए 'जवणिज्जं' शब्द द्वारा वह मन एवं इन्द्रियाँ संबंधी अलग पृच्छा करता है । ये शब्द भी प्रथम के दो पदों की तरह निम्नोक्त विशिष्ट तरीके से बोले हैं । - - ज अनुदात्त स्वर से, चरण-स्थापना को स्पर्श करते हुए । व - स्वरित स्वर से, ललाट की तरफ मध्य में हाथ सीधा करते समय । णिज् - उदात्त स्वर से, ललाट स्पर्श करते हुए । जं - अनुदात्त स्वर से, चरण-स्थापना को स्पर्श करते हुए । च - स्वरित स्वर से, ललाट तरफ मध्य में आते हुए हाथ सीधा करके, भे - उदात्त स्वर से, ललाट स्पर्श करते हुए । यहाँ वंदन के दूसरे तीन आवर्त निष्पन्न होते हैं । इस तरह कुल दो वंदन के बारह आवर्त होते हैं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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