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सूत्रसंवेदना - ३
५. थापना पृच्छा स्थान :
तप-संयम की पृच्छा के बाद अब संयम साधना में उपयोगी मन एवं इन्द्रिय संबंधी पृच्छा करते हुए शिष्य कहता है :
जवणिज्जं च भे ?- हे भगवंत ! आप का मन एवं इन्द्रियाँ उपशम आदि प्रकार द्वारा संयमित रहते हैं ?
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मन एवं इन्द्रियाँ साधना के अंग हैं । वे बाधा रहित हो तो मोक्ष की साधना भी ठीक तरीके से हो सकती है एवं रोगादि के कारण उनमें उपद्रव आए तो साधना में शिथिलता आती है; तप संयमादि की क्रिया बिगडती है और आत्मा का आनंद क्षीण होता है ।
सतत संयम की साधना करनेवाले गुरु भगवंत के मन तथा इन्द्रियाँ प्रायः संयमित होते हैं, इसलिए उपशम भाव में ही होती हैं; इसके बावजूद विशेष निमित्त पाने पर कभी छद्मस्थ गुरु भगवंत का मन भी उद्विग्न, उत्सुक या आवेश युक्त हो सकता है । जब मन ऐसा बने तब तप एवं संयम की साधना भी आत्मा को आनंद दिलाने में असमर्थ बन जाते है । इस कारण से गुरु के सुख की सतत चिंता करते शिष्य हुए है. पूछता
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"
'भगवंत ! आप का मन एवं इन्द्रियाँ रोगरहित होकर उपशम भाव में प्रवर्तमान हैं ? अर्थात् मन एवं इन्द्रियों द्वारा आप की संयम साधना सुंदर चल रही है ?"
वंदनार्थी साधक को संथमादि गुणों के प्रति अत्यंत बहुमान होता है । इसलिए वह इस प्रकार गुरु के संयम की चिंता करते हुए प्रश्न पूछकर गुरु के संयम साधक योगों का अनुमोदन करता है एवं उसके द्वारा अपने संयमादि योगों की वृद्धि करता है । गुरु के प्रति इस प्रकार का विनय शिष्य में भी उपशमादि गुणों का प्रादुर्भाव करता है ।
इस प्रश्न का जवाब देते हुए गुरु कहते हैं :
[' एवं ']
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'हाँ' इस प्रकार ही है ।