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सुगुरु वंदन सूत्र
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संयमयात्रा पृच्छा स्थान के इन पदों को बोलते और सुनते हुए सोचना चाहिए
“कुटुंब परिवार की, खाने-पीने की एवं पैसे टके की चिंता में मैंने कितने ही जन्म बेकार में गँवा दिए । जैन शासन की कैसी बलिहारी है ! गुरु-शिष्य का कैसा अपूर्व संबंध है ! यहाँ एक-दुसरे की आत्मा या आत्मा के गुणों के सिवाय व्यर्थ और कोई चिंता ही नहीं है । यही तो सच्ची मैत्री है, यही सच्ची मारिवारिक भावना है । वास्तविक सुख का यही सचोट मार्ग है ।
मेरा महान पुण्योदय है कि ऐसे योगियों के कुल में मुझे स्थान मिला है । ऐसे परिवार का सदस्य बनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है । बस, इस परिवार का सदस्य होते हुए मैं भी इस प्रकार परस्पर सब की आत्मा की चिंता करनेवाला बनूं ।”
नीचैरनुदात्तः - १ । २ । ३० ।। ताल्वादिषु स्थानेष्वधोभागे निष्पन्नोऽजनुदात्तसंज्ञः स्यात् । तालु आदि उच्चारण स्थान के नीचे के भाग में से जो बोला जाता है उसे अनुदात्त कहते है । समाहारः स्वरितः - १ । २ । ३१ ।। उदात्तानुदात्तत्वे वर्णधर्मो समाह्रियेते यस्मिन् सोऽच् स्वरितसंज्ञः स्यात् । उदात्त और अनुदात्त जहाँ एकत्र होते हैं उस स्वर को स्वरित स्वर कहते है। इस में ह्रस्व स्वर में एक मात्रा होने से उदात्त का आधा भाग और अनुदात्त का आधा भाग होता है । दीर्घ स्वर में दो मात्रा होने से अनुदात्त की आधी मात्रा और उदात्त की देढ मात्रा होती है। प्लुत स्वर में ३ मात्रा होने से अनुदात्त की आघी मात्रा और उदात्त की ढाई मात्रा होती है । वर्तमान में इनका प्रयोग वेद में देखने को मिलता है । वेद में इन स्वरों का संकेत चिह्नों द्वारा किया गया है । उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता । अनुदात्त स्वर के नीचे आडी रेखा तथा स्वरित के उपर खुड़ी रेखा का चिह्न होता है जैसे, उदात्त - अ । इ । उ । वगैरह... अनुदात्त - अ । इ । उ । वगैरह... स्वरित - अ । ई । उ । वगैरह...