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सूत्रसंवेदना-३
जत्ता भे ? - हे भगवंत । आप की तप एवं संयम यात्रा (सुखपूर्वक) बीती है ?
विनय की वृद्धि के लिए पुनः पूछा हुआ यह प्रश्न सुनकर गुरु भगवंत भी कहते हैं :
['तुब्भं पि वट्टए' ? ] मेरा तप-संयम तो सुंदर तरीके से चल रहा है, क्या तुम्हारा तप-संयम प्रगति के पंथ पर प्रवर्तमान है ?
यह सुनकर शिष्य प्रफुल्लित हो जाता है । उसे लगता है कि मेरी भी हित चिंता करनेवाले गुरु मेरे उपर हैं । इस प्रकार परस्पर तप-संयम की पृच्छा से संयम के प्रति आदर भाव में अत्यंत वृद्धि होती है । फल स्वरूप चारित्रादि गुणप्राप्ति में विघ्न करनेवाले कर्मों का विनाश होता है एवं प्राप्त हुए चारित्र की शुद्धि तथा वृद्धि होती है ।
इस पद के तीन अक्षर निम्नोक्त विशिष्ट तरीके से बोले जाते हैं - 'जत्' - शब्द अनुदात्त स्वर से बोला जाता है एवं उस समय दो हाथों द्वारा रजोहरण या चरवले के उपर की हुई गुरुचरण की स्थापना को स्पर्श किया जाता है ।
'ता' - शब्द स्वरित स्वर से बोला जाता है, तब चरण स्थापना पर से उठाए हुए हाथ मुँह की और सीधे किए जाते है । ___ 'भे' - शब्द उदात्त स्वर में बोला जाता है एवं तब दृष्टि गुरु समक्ष रखकर दोनों हाथों की दसों ऊंगलियाँ ललाट पर लगाई जाती हैं । 3. उदात्त - अनुदात्त - स्वरित - हरेक स्वर के उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित इस प्रकार तीन भेद
होते हैं । पूर्व काल में उदात्त आदि तीन स्वरों का प्रयोग लोक में भी किया जाता था, परन्तु वर्तमान में इन स्वरों का प्रचार लोक में नष्टप्राय हो गया है । पाणिनि व्याकरण में स्वर की इन तीन भेदों की व्याख्या स्पष्ट की गई है । उच्यैरुदात्त : - १ । २ । २९ ।। ताल्वादिषु स्थानेषर्श्वभागे निष्पन्नोऽजुदात्तसंज्ञः स्यात् । तालु आदि उच्चरण स्थान में उपर के भाग में से जो स्वर बोला जाता है, उस उदात्त कहते है । कुछ लोग जोर से बोलने को 'उदात्त' मानते है, परन्तु वह अयोग्य है ।